बुद्ध होना आसान है
एक रात चुपके से
घर द्वार स्त्री बच्चे को
छोड़ कर
सत्य की खोज में
निकल जाना
आसान है,,
क्योंकि
कोई उंगली
उठती नहीं आप पर
न ही ज्यादा सवाल
पूछे जाते हैं
कोई लांछन नहीं लगाता
शब्दों के बाणों से
तन मन छलनी नहीं किया जाता
लेकिन
कभी सोचा है
उनकी जगह एक स्त्री होती तो
वो गर चुपके से निकल जाती
एक रात
घर द्वार पति नवजात शिशु
को छोड़ कर
सत्य की खोज में
क्या कोई विश्वास करता
उसकी इस बात पर
यातनाएँ तोहमतें लगायी जाती
उसके स्त्रीत्व को
लाँछित किया जाता
पूरे का पूरा समाज
खड़ा हो जाता
उसके विरुद्ध
और
ये होती उसकी सत्य की खोज
बुद्ध होना आसान है
पर स्त्री होना कठिन !!
My candid response to the above WhatsApp message:
जहाँ पर जाकर भूत और भविष्य काल की चिंता या सोच ख़त्म होती है वहीं से इश्क़ या बुद्धत्व शुरू होता है।
शायद इसीलिए स्त्रियाँ सच्चे इश्क़ से वंचित रह कुंठित हो जाती हैं। न तो वें सोच-समझ के दायरे से बाहर आ पाती हैं और न ही बुद्धत्व प्राप्त कर पाती हैं।
सिवाय मीरा, राधा, राबिया, लल्लो के ज़्यादातर स्त्रियाँ या तो मोह-माया के जाल में या फिर ममत्व के जंजाल में ही उलझ कर रह जाती हैं।
अंदाज़ या चाहत उस पर ये की पुरूष भी उन जैसा ही हो जाए।
*चाह गई, चिन्ता मिटि, मनवा बेपरवाह*
*जिनको कछु ना चाहिए, वो ही शहंशाह*
यक़ीनन पुरुष स्त्रियों की अदाओं पर मोहीत हो जाता है। बला के हुस्न से पार आ पाना किसी भी पुरूष के लिए क़तई आसान नहीं।
निश्चित ही वो भी कंचन-काया, मोह-माया, तेरा-मेरा, अपना-पराया, काम-क्रोध, लाभ-हानी, शुभ-अशुभ, मंगल-अमंगल, लोभ, अहंकार इत्यादि के मद में चूर होता ही है पर फिर कोई सिद्धार्थ, कोई गौतम सारे आयामों, सारे क़ानून-क़ायदों को तोड़ निकल पड़ता है सत्य की खोज में।
यद्यपि ये बात अलग की बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात उसे ये ज्ञात होता है की *कस्तुरी कुंडल बसे मृग ढूँढे वन माही*।
इसलिए नम्र निवेदन है कृपा कर स्त्री-पुरूष एक दूसरे से तुलना कर प्रतियोगी होने से बचें। योगी बन योग से एक-दूसरे को पूर्ण करने का संकल्प लें।
स्वार्थ तज सेवार्थ रह परमार्थ करें।
प्रभु प्रदित जीवन का, यौन का आनंद लें। पौरुष और प्रकृति की तरह एकात्म हो पौरुषीय और स्त्रैण शक्तियों के दिव्य मिलन हेतु भगीरथ प्रयास कर सत्य-प्रेम-न्याय के मार्ग पर अग्रसर हों।
🕉का वास हो - प्रेम ❤️की सुवास हो - सौहार्द हो ☯️
Man is bad case....isn't it?
एक रात चुपके से
घर द्वार स्त्री बच्चे को
छोड़ कर
सत्य की खोज में
निकल जाना
आसान है,,
क्योंकि
कोई उंगली
उठती नहीं आप पर
न ही ज्यादा सवाल
पूछे जाते हैं
कोई लांछन नहीं लगाता
शब्दों के बाणों से
तन मन छलनी नहीं किया जाता
लेकिन
कभी सोचा है
उनकी जगह एक स्त्री होती तो
वो गर चुपके से निकल जाती
एक रात
घर द्वार पति नवजात शिशु
को छोड़ कर
सत्य की खोज में
क्या कोई विश्वास करता
उसकी इस बात पर
यातनाएँ तोहमतें लगायी जाती
उसके स्त्रीत्व को
लाँछित किया जाता
पूरे का पूरा समाज
खड़ा हो जाता
उसके विरुद्ध
और
ये होती उसकी सत्य की खोज
बुद्ध होना आसान है
पर स्त्री होना कठिन !!
My candid response to the above WhatsApp message:
जहाँ पर जाकर भूत और भविष्य काल की चिंता या सोच ख़त्म होती है वहीं से इश्क़ या बुद्धत्व शुरू होता है।
शायद इसीलिए स्त्रियाँ सच्चे इश्क़ से वंचित रह कुंठित हो जाती हैं। न तो वें सोच-समझ के दायरे से बाहर आ पाती हैं और न ही बुद्धत्व प्राप्त कर पाती हैं।
सिवाय मीरा, राधा, राबिया, लल्लो के ज़्यादातर स्त्रियाँ या तो मोह-माया के जाल में या फिर ममत्व के जंजाल में ही उलझ कर रह जाती हैं।
अंदाज़ या चाहत उस पर ये की पुरूष भी उन जैसा ही हो जाए।
*चाह गई, चिन्ता मिटि, मनवा बेपरवाह*
*जिनको कछु ना चाहिए, वो ही शहंशाह*
यक़ीनन पुरुष स्त्रियों की अदाओं पर मोहीत हो जाता है। बला के हुस्न से पार आ पाना किसी भी पुरूष के लिए क़तई आसान नहीं।
निश्चित ही वो भी कंचन-काया, मोह-माया, तेरा-मेरा, अपना-पराया, काम-क्रोध, लाभ-हानी, शुभ-अशुभ, मंगल-अमंगल, लोभ, अहंकार इत्यादि के मद में चूर होता ही है पर फिर कोई सिद्धार्थ, कोई गौतम सारे आयामों, सारे क़ानून-क़ायदों को तोड़ निकल पड़ता है सत्य की खोज में।
यद्यपि ये बात अलग की बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात उसे ये ज्ञात होता है की *कस्तुरी कुंडल बसे मृग ढूँढे वन माही*।
इसलिए नम्र निवेदन है कृपा कर स्त्री-पुरूष एक दूसरे से तुलना कर प्रतियोगी होने से बचें। योगी बन योग से एक-दूसरे को पूर्ण करने का संकल्प लें।
स्वार्थ तज सेवार्थ रह परमार्थ करें।
प्रभु प्रदित जीवन का, यौन का आनंद लें। पौरुष और प्रकृति की तरह एकात्म हो पौरुषीय और स्त्रैण शक्तियों के दिव्य मिलन हेतु भगीरथ प्रयास कर सत्य-प्रेम-न्याय के मार्ग पर अग्रसर हों।
🕉का वास हो - प्रेम ❤️की सुवास हो - सौहार्द हो ☯️
Man is bad case....isn't it?