क्या तेरा क्या मेरा..
क्या पाना क्या खोना..,
सब ख्याल हैं बस.. इश्क और मौत से पहले के..!!
उन्हें "अपना" बनाने की जिद ही उन्हें "पराया" कर गयी शायद...,
" इश्क " का जज्बा तो बेहतरीन था,
ये " दावेदारी " ही नाकाम कर गयी शायद..!!
करते रहे हम इंतज़ार बा-वक्ते दफ़न तक,
ये उम्मीदवारी ही नुकसान कर गयी शायद..!!
दिखाई दिए वो चौराहे पर तो सेज बिछा ली,
ये बदकारी ही नाराज कर गयी शायद..!!
सोचा की मना लेंगे हम उन्हें सजदा करके,
ये समझदारी ही गुलाम कर गयी शायद..!!
वफ़ा जो काम ना आई तो जफा को सर किया,
ये तरफदारी ही बे-ईमान कर गयी शायद..!!
तनहाई से घबरा कर गम को नशा बनाया,
ये बादाखारी ही हैवान कर गयी शायद..!!
देखे ना ऐब खुद के और हालात को कोसा किये,
ये गैरजिम्मेदारी ही इंसान कर गयी शायद..!!
भला हो उस रहबर का जो कस गया खुदी पे तमाचा,
ये खुद्दारी ही खुद्परस्त कर गयी शायद..!!
होश आया तो पाया की हम थे ही नहीं दो कभी,
ये जलवागिरी ही काम कर गयी शायद..!!
और फिर ये के...
ये "अपने-पराये" के फलसफे..
ये "वफ़ा-जफा" की बातें...
इन्हें देख कर ही हुआ होगा ' वो ' पागल,
बरसता है जो बेवक्त तुफानो की तरह.........
ना दिल टूटा..
ना की कोई शिकायत...
बस ! देखा किया ' वो ' ये सिलसिले,
बिखर गया फिर जो गुनाहों की तरह.........
झूठ ही सही..
तू कर तो सही मुझसे एक होने का वादा...
हैं दीवानावार यां बागीचों से मरहले,
यूँ दीखते हैं जो सहराओं की तरह.........
फिर ना कहना..
की बुलाया नहीं...
देता हूँ आवाज़ चीख-चीख कर,
ख़त्म हुए जातें हैं अब तो गुर्बतों के जलजले,
उतरते थे जो कल पनाहों की तरह.........
फिर ये भी की...
एक तनहाई तो है.....
पर है दहशतज़दा नहीं,
एक ज़िन्दगी तो है.....
पर है ख्यालशुदा नहीं,
ये भी नहीं के...
खौफ और सोज़ नहीं हैं शामिल,
एक रिश्ता सा तो है पर है तयशुदा नहीं......
उठती रहती हैं दिल में तमन्नाएँ भी और शौक़ भी,
एक दर्द सा तो है पर है ग़मज़दा नहीं......
बहती जाती है ज़िन्दगी इस वक़्त में और हर हाल में,
एक मुफलिसी सी तो है पर है शक-ओ-शुबा नहीं......
इश्क और मुश्क की बातें किये जाते हो तुम " मनीष "
एक तल्खी सी तो है पर है तुमसे अलहदा नहीं......
और अंत में...
ये सच है के हमाम में हम सब नंगे हैं...,
सवाल ये है की कौन शर्मिंदा हुआ अपने चेहरे से..!!
शुक्रिया गर आप पढ़ पाए मुझे यहाँ तक..
आपका ही..
मनीष बड़कस
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