Thursday, August 26, 2010
इंसानी दिमाग
इसी दिमाग ने सोच-सोच कर
इंसान को हलकान किया है,
दबा-दबा दिल की आवाज़
ये क़त्ल-ए-आम किया है,
कसूर दिमाग का नहीं मगर...
इंसान ने खुद ही
एक गुलाम को गुलफाम किया है..!!
दिल की सुन ले चाहे
या करे फिर वो दिमाग की,
हर हाल मगर इंसान ने
खुद को पर-ए-शान किया है..!!
दिल-ओ-दिमाग की जंग से
वो खुद को अलग रक्खे भी क्यूँकर,
दिल ही दिल में जब
खुद को यूँ तख़्त-ए-निशाँ किया है..!!
हुनर बर्दाश्त-ए-दोआलम का
सिखा कीजे 'मनीष' से,
दीवानावर हो जिसने
मकीं को मकां से लामकां किया है..!!
Saturday, August 14, 2010
मेरे हमवतनो...
मेरे हमवतनो
क्या चाहते हो तुम, मेरे हमवतनो ?
क्या ये
की खोखली इबारतों से सजे
आलिशान हरम बनाऊं मैं तुम्हारे लिए ?
या ये
की बनाऊं ख्वाबी शिवाले ?
या
चाहते हो के तोड़ डालूं
वो जो बनाया झूठों और तानाशाहों ने ?
क्या सच में ही खोद दूँ
वो जो गोद दिया फरेबियों और मक्कारों ने ?
बोलो..
क्या है तुम्हारी विक्षिप्त तमन्ना !
क्या है वो जो तुम मुझसे करवाना चाहोगे,
मेरे हमवतनो ?
क्या मैं तुम्हारी संतुष्टि के लिए
घुर्घुराउन किसी बिल्ली की तरह,
या
दहाडू किसी शेर की तरह
स्वयं के आनंद के लिए ?
मैं गीत गा चूका हूँ तुम्हारे लिए,
पर तुम कभी नाचे नहीं ;
मैं बिलख चूका हूँ तुम्हारे आगे,
पर तुम कभी रोए नहीं
क्या मैं गाऊं और बिलखुं
एक ही वक़्त में ?
तुम्हारी आत्मा भूख से व्याकुल है,
और घाटी के इन पत्थरों में
ज्ञान के फल प्रचुर हैं
ज्ञान के फल प्रचुर हैं
तुम्हारे ह्रदय मुरझा गए हैं प्यास से,
मगर ज़िन्दगी के झरने
तुम्हारे घरों के आस-पास ही बह रहें हैं ----
तुम अपनी प्यास क्यों नहीं बुझाते ?
समुद्र के अपने ज्वार-भाटे होते हैं,
चन्द्रमा के अपने पूनम और ग्रहण होते हैं,
समय के अपने ग्रीष्म और शिशिर होते हैं,
और हर चीज रूप बदलती है
किसी अजन्मे खुदा की परछाई की तरह
जो बहता है ज़मीन-ओ-आसमान के बीच,
पर सत्य कभी नहीं बदलता,
और ना ही वो कभी चूकता है ;
तुम क्यों लगे हुए हो फिर
उसकी मुखाकृति बिगाड़ने में ?
मैंने तुम्हें रात के अंधेरो में बुलाया है
चाँद की महिमा और तारों का वैभव दिखाने के लिए,
पर तुम चौंक के जाग पड़े अपनी निद्रा से
उठा ली तुमने अपनी तलवार अनजाने डर से,
और चिल्ला के बोले,
" कहाँ है दुश्मन ?
आओ पहले हम उसे मार गिराएँ ! "
सुबह जब दुश्मन आया
तो मैंने फिर से तुम्हें जगाया,
पर तुम नही जागे अपनी तन्द्रा से,
क्योंकि तब भी तुम डरे हुए थे
और लड़ रहें थे स्वप्नों में
अपनी ही कल्पना के पिशाचों से.
मैं तब भी ना हारा तुमसे
और की ये इल्तजा,
" चलो हम पर्वतों के शिखरों तक चढ़ते हैं
और देखते हैं वहाँ से इस संसार के सौंदर्य को "
तुमने दो टुक जवाब दिया की,
" इन खाइयों की गहराईयों में
हमारे पर-पिता निवास करते थे,
और इन्ही खाइयों में उनका मरण भी हुआ,
और फिर इन्ही गुफाओं में वो दफनाये भी गए.
हम ऐसे स्थान से कैसे कूच कर सकते हैं
जो गढ़ा है हमारे पिताओं ने ?"
मैं तब भी ना माना और बोला की,
" चलो तो हम चलते हैं मैदानों की तरफ
जो भर देते हैं अपने यश से सागरों को."
तुमने बिचकते हुए कहा की,
" सागर की अथाह गहराईयों का शोर हमारी आत्माओं को डरा देगा,
और उन गहराईयों के भय से हमारे शरीर मर जायेंगे."
मैंने तुम्हें प्यार किया है, मेरे हमवतनो,
पर मेरा प्यार मेरे लिया पीड़ा है
और तुम्हारे लिए अनुपयोगी ;
और अब मैं तुमसे नफरत करता हूँ,
और नफरत वो बाढ़ है
जो बहा ले जाती है सुखी टहनियों को
और कांपते घरों को.
मैंने करूणा रखी है तुम्हारी कमजोरियों पर,
मेरे हमवतनो,
लेकिन मेरी करूणा ने तुम्हारी कमजोरियों को
और भी बढ़ा कर
पालन-पोषण किया है उस आलस्य का
जो ज़िन्दगी को सख्त नागवार है
और आज जब मैं तुम्हें इस भाँती अशक्त देख रहा हूँ
तो मेरी आत्मा मुझे कचोट रही है .
मैं रोया हूँ तुम्हें अपमानित और समर्पित देख,
और मेर आंसू मोतियों तक को बहा ले गए
पर छू भी ना सके वो तुम्हारी चिरस्थायी कमजोरियों को ;
हाँ मगर,
मेरी आँखों पर पड़ा पर्दा वो उड़ा ले गए.
मेरे आंसू तुम्हारे डरे हुए दिलों तक
कभी ना पहुँच पाए,
पर मेरे अंदरूनी तमस को उन्होंने दूर कर दिया.
आज मैं तुम्हारी वेदनाओं का मजाक उड़ा रहा हूँ,
क्योंकि व्यंग्य ऐसा गुस्सैल दावानल है
जो आता है आँधियों के पहले
मगर आता नहीं आंधी के गुजर जाने के पश्चात .
क्या है तुम्हारी हसरत, मेरे हमवतनो,
क्या ये है तुम्हारी इच्छा
की ठहरे हुए पानी में दिखाऊं मैं तुम्हें
तुम्हारी ही प्रेत सी मुखाकृति ?
तो आओ,
और देखो के कितने बदसूरत हो तुम !
देखो ! ध्यान से देखो !
भय ने तुम्हारे बालों को सफ़ेद कर दिया है
राख के ढेर की तरह,
खालीपन छा चूका है तुम्हारी आँखों पर
और बदल गया है एक अंतहीन गड्डे में,
कायरता ने कुछ इस तरह छुआ है
तुम्हारे गालों को
के पिचक गए हैं वो किसी हताश खाई में गड्ड की तरह,
मौत ने लगता है लिया तुम्हारे
अधरों का कुछ इस तरह चुम्बन
की पीले पड़ गए हैं वो
पतझड़ के पत्तों की तरह.
क्या खोज रहें हो तुम, मेरे हमवतनो ?
क्या मांग रहें हो तुम उस ज़िन्दगी से,
जिसने तुम्हें अपने बच्चों में शुमार करना बंद कर दिया है ?
पंडितों और तिलिस्मियों के चंगुल में फंस
तुम्हारी आत्माएँ ठिठुर रही हैं,
और तुम्हारा जिस्म काँप रहा है
हुक्मरानों और खून बहाने वालो के पंजो में उलझ,
और तुम्हारा मुल्क थरथरा रहा है
जुल्मी विजेताओं के पाँव तले ;
किस आशा में तुम यूँ गर्व से
सूरज की और मुख किये खड़े हो ?
तुम्हारी तलवारों पे म्यान रूपी जंग लग चूका है,
और तुम्हारे भाले टूटे पड़े हैं,
और तुम्हारी ढाल जर्जर हो चुकी है सुराखों से ;
क्यों, फिर तुम, युद्ध के मैदान में खड़े हो ?
पाखण्ड तुम्हारा धर्म है,
झूठ तुम्हारी ज़िन्दगी,
और ना कुछ होना तुम्हारी समाप्ति ;
क्यों, फिर तुम, जिंदा हो ?
क्या मृत्यु दुखियों का एकमात्र सुकून नहीं ?
जीवन एक संकल्प है
जो साथ चलता है जवानी के,
और लगन है
जो अनुगमन करती है प्रोढ़ता की,
और प्रज्ञा है
जो पीछा करती है वृद्धत्व का ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
पैदा ही बूढ़े और कमजोर हुए,
तुम्हारी चमड़ी पर झुर्रियां हैं
और तुम्हारे सर सिकुड़े हुए,
ऊपर से तुम बच्चे बन
एक दुसरे पर पत्थर उछालते हुए
दौड़ते हो दलदल की और
ज्ञान एक रौशनी है,
जो समृद्ध करती है ज़िन्दगी की गर्मजोशी को,
और हासिल है उन्हें जो खोजते हैं
और शामिल होना चाहते हैं ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
तलाशते हो अन्धकार को
और भाग जाते हो रौशनी देख,
और इंतजार करते रहते हो
चट्टानों से स्वतः ही पानी फूटने का,
तुम्हारे मुल्क की ये दयनीय हालत
तुम्हारा ही अपराध है...
मैं तुम्हें तुम्हारो पापों से मुक्त नहीं करूँगा,
क्योंकि तुम जानते हो की तुम क्या कर रहे हो
मानवता एक प्रतिभाशाली नदी है
जो चलती है गीत गाते हुए
और समेट के पर्वतो के गूढ़ रहस्य अपनी छाती में
एक हो जाती है समुद्र के ह्रदय से ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
एक स्थिर दलदल हो
जो भरा पड़ा है
कीड़ों से और ज़हरीले नागों से
आत्मा एक पवित्र नीली मशाल है,
जो झुलसा देती है और भक्षण करती है
सूखे हुए पोधों का,
बढती है फिर वो तूफ़ान की तरह
मोहर लगते हुए
और रोशन करते हुए
देवियों के चेहरों को ;
पर तुम, मेरे हमवतनो...
तुम्हारी आत्माएँ राख की तरह है
जो बिखरा दी जाती है बर्फीले पहाड़ों पर
हवाओं के द्वारा,
और जो छितरा दी जातीं हैं
घाटियों में आँधियों द्वारा
हमेशा के लिए
तुम ना डरो मौत के पिशाच से,
मेरे हमवतनो,
की वो अपनी महानता में
और तुम्हारे बोनेपन पर तरस खा कर
तुम्हारे निकट आना भी अस्वीकार कर देगा,
और खौफ ना खाओ तुम खंजर का,
की वो भी तुम्हारे छिछले ह्रदयों में
घर ना करना चाहेगा
मैं तुमसे नफरत करता हूँ,
मेरे हमवतनो,
क्योंकि तुम नफरत से भरे हो आनंद और प्रभुत्व के प्रति,
मैं घृणा करता हूँ तुमसे
क्योंकि तुम तिरस्कार करते हो खुद का,
हाँ ! मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ,
क्योंकि तुम्हें अस्वीकार है ये सत्य
की तुम दुश्मन हो देवियों के
- खलील जिब्रान
और आज जब मैं तुम्हें इस भाँती अशक्त देख रहा हूँ
तो मेरी आत्मा मुझे कचोट रही है .
मैं रोया हूँ तुम्हें अपमानित और समर्पित देख,
और मेर आंसू मोतियों तक को बहा ले गए
पर छू भी ना सके वो तुम्हारी चिरस्थायी कमजोरियों को ;
हाँ मगर,
मेरी आँखों पर पड़ा पर्दा वो उड़ा ले गए.
मेरे आंसू तुम्हारे डरे हुए दिलों तक
कभी ना पहुँच पाए,
पर मेरे अंदरूनी तमस को उन्होंने दूर कर दिया.
आज मैं तुम्हारी वेदनाओं का मजाक उड़ा रहा हूँ,
क्योंकि व्यंग्य ऐसा गुस्सैल दावानल है
जो आता है आँधियों के पहले
मगर आता नहीं आंधी के गुजर जाने के पश्चात .
क्या है तुम्हारी हसरत, मेरे हमवतनो,
क्या ये है तुम्हारी इच्छा
की ठहरे हुए पानी में दिखाऊं मैं तुम्हें
तुम्हारी ही प्रेत सी मुखाकृति ?
तो आओ,
और देखो के कितने बदसूरत हो तुम !
देखो ! ध्यान से देखो !
भय ने तुम्हारे बालों को सफ़ेद कर दिया है
राख के ढेर की तरह,
खालीपन छा चूका है तुम्हारी आँखों पर
और बदल गया है एक अंतहीन गड्डे में,
कायरता ने कुछ इस तरह छुआ है
तुम्हारे गालों को
के पिचक गए हैं वो किसी हताश खाई में गड्ड की तरह,
मौत ने लगता है लिया तुम्हारे
अधरों का कुछ इस तरह चुम्बन
की पीले पड़ गए हैं वो
पतझड़ के पत्तों की तरह.
क्या खोज रहें हो तुम, मेरे हमवतनो ?
क्या मांग रहें हो तुम उस ज़िन्दगी से,
जिसने तुम्हें अपने बच्चों में शुमार करना बंद कर दिया है ?
पंडितों और तिलिस्मियों के चंगुल में फंस
तुम्हारी आत्माएँ ठिठुर रही हैं,
और तुम्हारा जिस्म काँप रहा है
हुक्मरानों और खून बहाने वालो के पंजो में उलझ,
और तुम्हारा मुल्क थरथरा रहा है
जुल्मी विजेताओं के पाँव तले ;
किस आशा में तुम यूँ गर्व से
सूरज की और मुख किये खड़े हो ?
तुम्हारी तलवारों पे म्यान रूपी जंग लग चूका है,
और तुम्हारे भाले टूटे पड़े हैं,
और तुम्हारी ढाल जर्जर हो चुकी है सुराखों से ;
क्यों, फिर तुम, युद्ध के मैदान में खड़े हो ?
पाखण्ड तुम्हारा धर्म है,
झूठ तुम्हारी ज़िन्दगी,
और ना कुछ होना तुम्हारी समाप्ति ;
क्यों, फिर तुम, जिंदा हो ?
क्या मृत्यु दुखियों का एकमात्र सुकून नहीं ?
जीवन एक संकल्प है
जो साथ चलता है जवानी के,
और लगन है
जो अनुगमन करती है प्रोढ़ता की,
और प्रज्ञा है
जो पीछा करती है वृद्धत्व का ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
पैदा ही बूढ़े और कमजोर हुए,
तुम्हारी चमड़ी पर झुर्रियां हैं
और तुम्हारे सर सिकुड़े हुए,
ऊपर से तुम बच्चे बन
एक दुसरे पर पत्थर उछालते हुए
दौड़ते हो दलदल की और
ज्ञान एक रौशनी है,
जो समृद्ध करती है ज़िन्दगी की गर्मजोशी को,
और हासिल है उन्हें जो खोजते हैं
और शामिल होना चाहते हैं ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
तलाशते हो अन्धकार को
और भाग जाते हो रौशनी देख,
और इंतजार करते रहते हो
चट्टानों से स्वतः ही पानी फूटने का,
तुम्हारे मुल्क की ये दयनीय हालत
तुम्हारा ही अपराध है...
मैं तुम्हें तुम्हारो पापों से मुक्त नहीं करूँगा,
क्योंकि तुम जानते हो की तुम क्या कर रहे हो
मानवता एक प्रतिभाशाली नदी है
जो चलती है गीत गाते हुए
और समेट के पर्वतो के गूढ़ रहस्य अपनी छाती में
एक हो जाती है समुद्र के ह्रदय से ;
पर तुम, मेरे हमवतनो,
एक स्थिर दलदल हो
जो भरा पड़ा है
कीड़ों से और ज़हरीले नागों से
आत्मा एक पवित्र नीली मशाल है,
जो झुलसा देती है और भक्षण करती है
सूखे हुए पोधों का,
बढती है फिर वो तूफ़ान की तरह
मोहर लगते हुए
और रोशन करते हुए
देवियों के चेहरों को ;
पर तुम, मेरे हमवतनो...
तुम्हारी आत्माएँ राख की तरह है
जो बिखरा दी जाती है बर्फीले पहाड़ों पर
हवाओं के द्वारा,
और जो छितरा दी जातीं हैं
घाटियों में आँधियों द्वारा
हमेशा के लिए
तुम ना डरो मौत के पिशाच से,
मेरे हमवतनो,
की वो अपनी महानता में
और तुम्हारे बोनेपन पर तरस खा कर
तुम्हारे निकट आना भी अस्वीकार कर देगा,
और खौफ ना खाओ तुम खंजर का,
की वो भी तुम्हारे छिछले ह्रदयों में
घर ना करना चाहेगा
मैं तुमसे नफरत करता हूँ,
मेरे हमवतनो,
क्योंकि तुम नफरत से भरे हो आनंद और प्रभुत्व के प्रति,
मैं घृणा करता हूँ तुमसे
क्योंकि तुम तिरस्कार करते हो खुद का,
हाँ ! मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ,
क्योंकि तुम्हें अस्वीकार है ये सत्य
की तुम दुश्मन हो देवियों के
- खलील जिब्रान
Friday, August 13, 2010
15th August special...
MY COUNTRYMEN
" WHAT do you seek, my countrymen?
Do you desire that i build for
You gorgeous palaces,
decorated with words of empty meaning,
or
Temples roofed with dreams?
or
Do you command me to destroy
what the liars and the tyrants have built?
Shall i uproot with my fingers,
what the hypocrites and the wicked have implanted?
Speak your insane wish!
What is it you would have me do,
My countrymen?
Shall i purr like the kitten to satisfy you,
or
roar like the lion to please myself?
i have sung for you,
but you did not Dance;
i have wept before you,
but you did not Cry.
Shall i sing and weep at the same time?
Your souls are suffering the pangs of hunger,
and yet the fruit of knowledge is more plentiful
than the stones of the valleys.
Your hearts are withering from Thirst,
and yet the springs of Life
are streaming about your Homes----
why do you not drink?
The sea has its ebb and flow,
The moon has its fullness and Crescents,
and the Ages have their winter and summer,
and all things vary like the shadow of
an unborn God moving between Earth and Sun,
but Truth cannot be changed,
nor will it pass away;
Why, then, do you endeavour to
disfigure its countenance?
i have called you in the silence of the night
to point out the Glory of the moon
and the dignity of the stars,
but you startled from your slumber
and clutched your swords in Fear,
crying,"Where is the enemy?
We must kill him first!"
At morningtide, when the enemy came,
i called to you again,
but now you did not wake from your slumber,
for you were locked in fear,
wrestling with the processions of spectres in your dreams.
And i said unto you,
"Let us climb to the mountain top
and view the Beauty of the world."
And you answered me saying,
"In the depths of this valley our fathers lived,
And in its shadows they died,
and in its caves they were buried.
How can we depart this place
for one which they tailed to honour?"
And i said unto you,
"Let us go to the plain
that gives its bounty to the sea."
And you spoke timidly to me, saying,
"The uproar of the abyss will frighten our spirits,
and the terror of the depths will deaden our bodies."
i have loved you, my countrymen,
but my love for you is painful to me
and useless to you;
and Today i hate you,
and hatred is a flood that sweeps away the dry branches
and quivering houses.
i have pitied your weakness,
my countrymen,
but my pity has but increased your feebleness,
exalting and nourishing slothfulness
which is vain to life.
and today i see your infirmity
which my soul loathes and fears.
i have cried over your humiliation and submission;
and my tears streamed like crystalline,
but could not sear away
your stagnant weakness;
yet they removed the veil from my eyes.
My tears have never reached your petrified hearts,
but they cleansed the darkness
from my inner self.
Today i am mocking at your suffering,
for laughter is a raging thunder
that precedes the tempest
and never comes After it.
What do you desire, my countrymen;
Do you wish for me to show you
the ghost of your countenance
on the face of still water?
Come,
Now,
and see how ugly you are!
Look and meditate!
Fear has turned your hair grey
as the Ashes,
and dissipation has grown over your eyes
and made them into obscured hollows,
and cowardice has touched your cheeks
that now appear as dismal pits in the valley,
and death has kissed your lips
and left them yellow
as the autumn leaves.
What is it that you seek,
my countrymen?
What ask you from Life,
who does not count you among her children?
Your souls are freezing
in the clutches of the priests and Sorcerers,
and your bodies tremble
between the paws of the Despots
and the shedders of blood,
and your country quakes
under the marching feet of the conquering enemy;
What may you expect
even though you stand proudly
before the face of the Sun?
Your swords are sheathed with rust,
and your spears are broken,
and your shields are laden with gaps;
Why, then,
do you stand in the field of battle?
Hypocrisy is your religion,
and falsehood is your life,
and nothingness is your ending;
Why, then,
are you living?
Is not death the sole comfort of miserables?
Life is a resolution that accompanies youth,
and a diligence that follows maturity,
and a Wisdom that pursues senility;
but you, my countrymen,
were born old and weak.
And your skins withered
and your head shrank,
whereupon you became as children,
running into the mire
and casting stones
upon each other.
Knowledge is a light,
enriching the warmth of life,
and all may partake
who seek it out;
but you, my countrymen,
seek out darkness and flee the light,
awaiting the coming of water from the rock,
And
your nation's misery is your crime...
i do not forgive you your sins,
for you know what you are doing.
Humanity is a brilliant river,
Singing its way
and carrying with it
the mountains' secret
into the heart of the sea;
but you, my countrymen,
are stagnant marshes
infested with
insects and vipers.
The Spirit is sacred blue torch,
burning and devouring the dry plants,
and growing with die storm
and illuminating the faces of the goddesses;
but you, my countrymen...
Your souls are like ashes
which the winds scatter upon the snow,
and which the tempests disperse
forever in the valleys.
Fear not the phantom of Death,
My countrymen,
for his greatness and mercy
will refuse to approach your smallness;
and dread not the dagger,
for it will decline
to be lodged in your shallow hearts.
I hate you my countrymen,
because you hate glory and greatness.
I despise you because you despise yourselves.
I am your enemy,
for you refuse to realise that
you are the enemies of the goddesses.
- KAHLIL GIBRAN
and quivering houses.
i have pitied your weakness,
my countrymen,
but my pity has but increased your feebleness,
exalting and nourishing slothfulness
which is vain to life.
and today i see your infirmity
which my soul loathes and fears.
i have cried over your humiliation and submission;
and my tears streamed like crystalline,
but could not sear away
your stagnant weakness;
yet they removed the veil from my eyes.
My tears have never reached your petrified hearts,
but they cleansed the darkness
from my inner self.
Today i am mocking at your suffering,
for laughter is a raging thunder
that precedes the tempest
and never comes After it.
What do you desire, my countrymen;
Do you wish for me to show you
the ghost of your countenance
on the face of still water?
Come,
Now,
and see how ugly you are!
Look and meditate!
Fear has turned your hair grey
as the Ashes,
and dissipation has grown over your eyes
and made them into obscured hollows,
and cowardice has touched your cheeks
that now appear as dismal pits in the valley,
and death has kissed your lips
and left them yellow
as the autumn leaves.
What is it that you seek,
my countrymen?
What ask you from Life,
who does not count you among her children?
Your souls are freezing
in the clutches of the priests and Sorcerers,
and your bodies tremble
between the paws of the Despots
and the shedders of blood,
and your country quakes
under the marching feet of the conquering enemy;
What may you expect
even though you stand proudly
before the face of the Sun?
Your swords are sheathed with rust,
and your spears are broken,
and your shields are laden with gaps;
Why, then,
do you stand in the field of battle?
Hypocrisy is your religion,
and falsehood is your life,
and nothingness is your ending;
Why, then,
are you living?
Is not death the sole comfort of miserables?
Life is a resolution that accompanies youth,
and a diligence that follows maturity,
and a Wisdom that pursues senility;
but you, my countrymen,
were born old and weak.
And your skins withered
and your head shrank,
whereupon you became as children,
running into the mire
and casting stones
upon each other.
Knowledge is a light,
enriching the warmth of life,
and all may partake
who seek it out;
but you, my countrymen,
seek out darkness and flee the light,
awaiting the coming of water from the rock,
And
your nation's misery is your crime...
i do not forgive you your sins,
for you know what you are doing.
Humanity is a brilliant river,
Singing its way
and carrying with it
the mountains' secret
into the heart of the sea;
but you, my countrymen,
are stagnant marshes
infested with
insects and vipers.
The Spirit is sacred blue torch,
burning and devouring the dry plants,
and growing with die storm
and illuminating the faces of the goddesses;
but you, my countrymen...
Your souls are like ashes
which the winds scatter upon the snow,
and which the tempests disperse
forever in the valleys.
Fear not the phantom of Death,
My countrymen,
for his greatness and mercy
will refuse to approach your smallness;
and dread not the dagger,
for it will decline
to be lodged in your shallow hearts.
I hate you my countrymen,
because you hate glory and greatness.
I despise you because you despise yourselves.
I am your enemy,
for you refuse to realise that
you are the enemies of the goddesses.
- KAHLIL GIBRAN
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