जाने-अनजाने
गालिबन या बातिमन
जन्म हुआ है
तो गुनाह तो हो ही जाते हैं हमसे
अल्लाह ताला मगर मोहब्बत से अपनी
बक्श भी देते हैं उन गुनाहों को
गुनाहगार की पाक-साफ़ नीयत से
पेश की गई इल्तिजा, दुआ, नमाज सुन-सुन
पर...
लगातार
जान-बूझकर
ज़ाहिरन
गुनाह करने वाले काफिर को
कौन बचाएगा खुदाई कहर से...
आज नहीं तो कल ही सही
उस काफिर ने बेशक मगर
खुद-बा-खुद ही चुन लिया है
अपने बदजात कर्मो से
खुद के अहंकारी सर को कटा लेना
कर ही रहा है वो
अपने मगरुरी सर को
कटा लेने का इंतज़ाम
ले ही रहा है वो
कुदरत की श्रद्धा-सबुरी का इम्तेहान
और...
वो भी किसी और के हाथों नहीं
बल्कि
स्वयंभू महा-काल के वीरभद्र रौद्र रुपी ताप के हाथों...
जारी रही अगर
उस बद्तमीज की
जान-बूझकर गुनाह में लीन रहने की तामसिक प्रवत्ति
या यूँ कहें की दोजखी तलब
तो
निश्चित रूप से क़यामत से क़यामत तक
बरसता ही रहेगा उस शैतान पर
कुदरत का कहर...
ना कुछ खोने को है यहाँ
और ना ही है यहाँ कुछ पाने को
कुदरतन दिखाई देने लगा है महबूब
जबसे
इस दीवाने वारसी को...
दिमागी आँखों से
सिर्फ तब ही
देखा जा सकता है
या फिर याद किया जा सकता है
अपने महबूब को
दिल से जब पूरी तरह भुला दिया गया हो उसे
दिल-ओ-दिमाग मगर
जब
एक हो जाएँ तेरी कुदरती रहमतों से
मेरे मौला...!!
तब
कोई किस तरह तुझे याद कर पायेगा
या तुझे भूल पायेगा
मेरे मौला..!!
हर लम्हा बस तू ही तू
हर जगह बस तू ही तू
हर करम बस तेरा ही तेरा
हर एक में बस तेरा ही तेरा
मायावी रूप में हमें नज़र आएगा
मेरे मौला..!!
अली मौला
अली मौला
अली मौला
हक
देख लो अपने अन्दर विराजे ॐ को
अपने महबूब की तरह...
देखा करो अपनी आती-जाती साँस को
किसी माशूक की तरह...
हमारे हर एक करम को
तुम्हारा ही रहम बक्श दो मौला
तू ही सत्य
तू ही शिव
तू ही सुन्दर
मौला..!!
या वारिस
अल्लाह वारिस
हक वारिस
अल्लाह वारिस
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