कभी आज़ाद थे हम,
समुद्र के अंश थे हम,
उठाया गया, चुना गया,
छेदा गया, भेदा गया,
फिर पिरोया गया हमें
एकजुट तो हुए पर धागा कमजोर हो तो टूट कर बिखर जाने का डर सतत सताता रहता है हमें
अब एक महीन धागे में वर्षों से एकसाथ बंधे हुए हैं हम...
सजाने-सॅंवारने के काम तो आते हैं पर गले लगाने के बाद उतारे भी जाते हैं हम,
दिल से उतर कर फिर किसी संदूक में कैद हो जाते हैं हम...
जी हाॅं, कहने को तो नायाब मोती कहलाते हैं हम,
पर असल में किसी बंधे हुए मजदूर से कम नहीं हैं हम,
सामंतवाद, पूंजीवाद, लाल फीताशाही की कसम,
माॅं कसम...
वंदे मातरम्
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