ज़ुबान जब कैंची की तरह चले तो अच्छे-अच्छों की हड्डी-पसली एक कर जाए,
चटखारे ले ले कर जब वो चले तो भांति-भांति के स्वर और व्यंजन चखा जाए,
ज़ख़्म पैदा भी करे है कटीली ज़ुबान और वैद्य बन ज़ख्मों को सहलाए भी,
उत्तेजना भी पैदा करे है रसीली ज़ुबान और आशिक़ को चिढ़ाए भी,
दांतों में कुछ फंस जाए तो बेचैन हो उठती है ज़ुबान और उन्हीं दातों से कट जाए भी,
ज़ुबान ज़ुबान का फर्क कह लीजिए इसे या कहिए इसे हर ज़ुबान की अपनी अलग दास्तान या प्रथक पहचान,
कहे कबीर सुनो भाई साधो, साधो ऐसी ज़ुबान जो औरन को शीतल करे आपहूं शीतल होई जाए, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।
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