हाय !
यूँ ज़िक्र ना ला तू अंगूर की बेटी का..,
रात भर ये कह ना उतरी शीशे में
की..
छलकते पैमानों में छलकने की मुझे इजाज़त नहीं..!!
ना पैमाना खाली कर सके
ना बदल पाए मयखाने के दस्तूर..,
तिशनगी मगर ये कह जिंदा रही
की..
डूबते हुओं को डुबाने की मुझे इजाज़त नहीं..!!
साकी से की जो इल्तजा
मुफीद प्यास बुझाने की..,
हँस के वो कहने लगी
की..
पियक्कड़ों को और पिलाने की मुझे इजाज़त नहीं..!!
दायम निकाले गए हम
यूँ जन्नत से अलसुबह..,
ज़िक्र फिर ले आये तुम तो हमने भी कहा
की..
मयखारों को कब मयक़दे जाने की इजाज़त नहीं..!!
कभी तो तरस आ ही जायेगा
उसे हमारे हाल पर..,
सुना है हमने
की..
ताउम्र तड़पते को तड़पाने की उसे भी इजाज़त नहीं..!!
गुनाहगार हूँ में जब उसका अज़ल से,
किस तरह बक्शवाऊं फिर गुनाह मैं अपनी अकल के,
सुना है के वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है,
बक्श्ता क्यूँ नहीं फिर वो गुनाही के अमल से..
वाजिब है उनका हमें यूँ नाफ़हम कहना,
मजाक नहीं यूँ खुद को
खुशफ़हमी और ग़लतफहमी में गाफ़िल रखना..
कभी तो तरस आ ही जायेगा
ReplyDeleteउसे हमारे हाल पर..,
सुना है हमने
की..
ताउम्र तड़पते को तड़पाने की उसे भी इजाज़त नहीं..!!
waah