Monday, July 26, 2010
जाने क्यूँ...
तुम सुन लो ना...
प्लीज़...
मेरे बिन कहे ही
वो..
जो मैं सदियों से कह-कह कर भी कह ना पाया....!
ना ना..!
ये नहीं की तुम्हारे-मेरे
कहने-सुनने में कोई कमी-पेशी थी..,
जाने क्यूँ मगर रह गई वो बात
फिर भी अनकही, अनसुनी...........
जाने क्यूँ मगर ख़ामोशी ने
फिर एक बार युगल-गीत ही गाया....!
इधर सुलगा किया सूरज
उधर चाँद रोशन रहा,
जाने क्यूँ मगर मिलन उनका
ग्रहण ही कहलाया....!
रात और दिन की चोरी
एक दिन पकड़ी गई,
जाने क्यूँ मगर अदालत ने
सर-ए-शाम ही अपना फैसला सुनाया....!
सुख ही सुख की चाहत देख
दुःख रहता है उदास,
जाने क्यूँ मगर ज़माने में
कोई उन्हें जुदा ना कर पाया....!
आदत है हमें इसे अच्छा
और उसे बुरा समझने की,
जाने क्यूँ मगर इंसान
कभी एक-राय ना हो पाया....!
ज़िन्दगी जब भी मिली मौत से
डर-डर के ही मिली,
जाने क्यूँ मगर गलबहियां उनकी
'मनीष' समझ ना पाया....!
The name is enough to describe me.
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इधर सुलगा किया सूरज
ReplyDeleteउधर चाँद रोशन रहा,
जाने क्यूँ मगर मिलन उनका
ग्रहण ही कहलाया....!
this is my first visit but ur poem is describing enough abt ur creativity. nice written.