किसी ने क्या खूब कहा है...
"ज़िन्दगी तस्वीर भी है और तकदीर भी.."
मनचाहे रंगों से बने तो तस्वीर...
अनचाहे रंगों से बने तो तकदीर.....!!..
हम बोल उठे :
क्यों चाहते हो कुछ..??
क्यों कुछ तुम्हें पसंद है और कुछ नापसंद..??
की जब की ;
लिख रखी तकदीर में उसने पूरी की पूरी काएनात है..
खा बैठा में सेब इल्म का ये अलग बात है..
क्या करता..की वो सेब था ही बड़ा लजीज..
आज़ादी, बाद गुलामी के..!!..
वाह भई वाह..क्या बात है.....!
Saturday, November 20, 2010
Tuesday, November 16, 2010
दोस्ती
वो जो दोस्ती का दम भरते हैं,
वो जो इश्क का ग़म करते हैं,
सितारे नहीं बादल हैं वो कारे-कारे,
चंदा की चांदनी को जो कम करते हैं..
दोस्ती एक बालिश्त बराबर भी उम्मीद नहीं रखती,
ना वफ़ा की
ना जफा की..
बस एक झरना है पल-पल बहता
जो नदी बन जाए तो काफ़ी है..!!
दोस्ती आसरा नहीं
ना ही वो कोई सहारा है..
बस एक सिलसिला है इश्क का
जो बन जाए तो काफ़ी है..!!
दोस्ती ना जरुरत है
ना है कोई इत्तेफाक..
बस एक नगमा है सुकून भरा
जो गा लिया जाए तो काफ़ी है..!!
ना वक़्त गुज़ारने का ज़रिया है दोस्ती
ना ही fb पे लगी गपोड़ों की कोई चौपाल है दोस्ती..
बस एक हुनर है खुद को पा लेने का
जो पा लिया जाए तो काफ़ी है..!!
फ़क़त हँसी-ठट्टा नहीं है ये दोस्ती
ना ही गाली-गलोच से होती मजबूत ये दोस्ती..
बस एक यकीन है बे-तकल्लुफ सा
जो आ जाए एक-दूजे पर तो काफ़ी है..!!
दोस्ती झूठ की हमदर्द नहीं
ना ही वो है सच की तलबगार..
बस एक बारिश है सतरंगी सी
ज़रा भीग लिया जाए तो काफ़ी है..!!
Monday, November 15, 2010
क्या करूँ..?
तेरे होते क्या हो सकता है मुझे..?
तेरी दुआओं की चादर चढ़ी हुई है मुझ पर..
कोई मुझे छु कर भी छु नहीं पाता,
और तुम..!
तुम मुझे बिना छुए ही पूरा कर देते हो..
समझ नहीं पा रहा फिर भी की क्या करूँ मैं अपने साथ..?
ये करूँ, वो करूँ या फिर कुछ ना करूँ मैं अब अपने साथ..?
ये करूँ तो वो नाखुश, वो करूँ तो ये नाउम्मीद..
किस-किस की हसरतें में पूरी करूँ,
जो मोहब्बतन लग गयीं है अब अपने साथ..
कुछ ना करने की जो मैं कर लेता हूँ ज़िद,
तब भी तो कुछ ना कुछ कर ही लेता हूँ ना मैं अपने साथ..?
या खुदा..!
तू ही बता की अब मैं क्या करूँ..?
एक तेरा ही साया तो है जो अब है अपने साथ..
क्यूँ ना ख़त्म कर लूँ मैं अपने आप को..?
जब तू ही तू रहता है हर वक़्त बस अब अपने साथ..
तौबा कर लो इस मैं की मय से
वो कहता है 'मनीष',
बका से बेहतर फ़ना है
जो कर सको तुम अपने साथ..
[बका = sacrifice, फ़ना = dissolution]
Friday, November 12, 2010
लुत्फ़
जो लुत्फ़ इकरार-ए-यार में है
इसी लिए..
बिखर गया वो बनकर क़ाएनात..!!
जानता था वो बखूबी..
की इस तरह तो बिखर जाएगी मोहब्बत भी
मजा जो मगर बिछड़ कर मिलने में है
वो कायम पहलु-ए-यार में नहीं..!!
मेरे रब ने करम ये अनोखा रखा
ख़ुशी और ग़म का संगम ये अनोखा रखा..
टूट जाता है हर ख्वाब पूरा होकर
इसलिए हर ख्वाब मेरा उसने अधुरा रखा..
ले सकूँ लुत्फ़ मैं इस अधूरेपन का
इसलिए उसने खुद को खुदाई में गुमशुदा रखा..
हो सके एहसास मुझे उस पार का
इसलिए इस पार उसने ये किस्सा रखा..
देख सकूँ मैं उसको इसमें भी और उसमें भी
इसलिए उसने मुझको खुद सा रखा..
कर सकूँ महसूस मैं जज़्बा-ए-यकीन
इसलिए खौफ-ओ-दिलेरी का ये मजमा रखा..
अंदाज़े ही ना लगाता रहूँ ताउम्र मैं जशन के
इसलिए हार-जीत का कायम ये सिलसिला रखा..
हो सकूँ फ़ना मैं उसमें अपनी मर्ज़ी से
इसलिए जीते जी मरने का ये हौसला रखा..
मेरे रब ने करम ये अनोखा रखा
ख़ुशी और ग़म का संगम ये अनोखा रखा..
टूट जाता है हर ख्वाब पूरा होकर
इसलिए हर ख्वाब मेरा उसने अधुरा रखा..
ले सकूँ लुत्फ़ मैं इस अधूरेपन का
इसलिए उसने खुद को खुदाई में गुमशुदा रखा..
हो सके एहसास मुझे उस पार का
इसलिए इस पार उसने ये किस्सा रखा..
देख सकूँ मैं उसको इसमें भी और उसमें भी
इसलिए उसने मुझको खुद सा रखा..
कर सकूँ महसूस मैं जज़्बा-ए-यकीन
इसलिए खौफ-ओ-दिलेरी का ये मजमा रखा..
अंदाज़े ही ना लगाता रहूँ ताउम्र मैं जशन के
इसलिए हार-जीत का कायम ये सिलसिला रखा..
हो सकूँ फ़ना मैं उसमें अपनी मर्ज़ी से
इसलिए जीते जी मरने का ये हौसला रखा..
Wednesday, November 10, 2010
सिलसिले समय के..
गरीब वो नहीं
जिसके पास कुछ नहीं..
गरीब वो..,
जिसके पास ज़िंदगी है
पर होश नहीं..
होश वो नहीं
जिसमे पता चले की मैं हूँ..
होश वो..,
जो पता लगा ले के ख़त्म मेरे बाद भी होती
ये ज़िन्दगी नहीं..
ज़िन्दगी वो नहीं
जिसमे आलिशान हो सबकुछ..
ज़िन्दगी वो..,
जिसमे परेशानी तो हो पर कर सके वो हमें
पर-ए-शान नहीं..
पर-ए-शान वो नहीं
जिसका लुट गया हो सबकुछ..
पर-ए-शान वो..,
जिसकी निगाह में होती खुद की
कोई शान नहीं..
शानदार वो नहीं
जिसका हो मुल्क में कुछ नाम..
शानदार वो..,
जिसको होता नाम से
कुछ काम नहीं..
काम वो नहीं
जो किया जाता है हाथों से..
काम वो..,
जो हुआ जाता है नेकी से
बद नीयतों से नहीं..
नियत वो नहीं
जो रखी जाती है कुछ पाने के लिए..
नियत वो..,
जो होती है हर वक़्त फिर चाहे कुछ और हो
या हो नहीं..
होना वो नहीं
जो बन जाते है हम बुढ़ापे में..
होना वो..,
जो हो मासूम बुढ़ापे में
पर हो बचकाना नहीं..
बचकाना वो नहीं
जो रहता है मस्त अपनी मस्ती में..
बचकाना वो..,
जो ऊपर तो उठ गया बचपने से पर उठ सका ऊपर
तुलना से नहीं..
तुलना वो नहीं
जो सिखाती है फर्क अच्छे-बुरे में..
तुलना वो..,
जो फर्क तो करे पर जाने की कोएलों और हीरों में होता
बुनियादी कोई फर्क नहीं..
फर्क वो नहीं
जो देख सके खुद को खुदाई से अलग..
फर्क वो..,
जो देख ले की हुआ कभी खुदा
खुदाई से जुदा नहीं..
जुदा वो नहीं
जो हो मुकम्मल अपनी तनहाइयों में..
जुदा वो..,
जो करे खुद को तनहा महसूस पर है ऐसा
असल में नहीं..
असल वो नहीं
जो दिखाई दे साफ़-साफ़ इन नज़रों से..
असल वो..,
जिसकी तबियत छीन पाई ज़माने वालों की
काहिली भी नहीं..
काहिली वो नहीं
जो फैली हुई है चार-सूं गंदगी की तरह..
काहिली वो..,
जिसका मोमिन को अभी
पता तक नहीं..
पता वो नहीं
जो लिखा हो घर के दर-ओ-दीवार पे..
पता वो..,
जो होता काएनात में
कभी लापता नहीं..
लापता वो नहीं
जिसका होता कोई निश्चित पता..
लापता वो..,
जिसका मकीं होकर भी होता
कोई मकां नहीं..
मकां वो नहीं
जिसकी होती है दर-ओ-दीवारें..
मकां वो..,
जिसमे होती है परवाज़
पे मंजिल नहीं..
मंजिल वो नहीं
जहाँ पहुँच के आदमी ठहर जाए..
मंजिल वो..,
जो पैगाम लाये सफ़र का पर साथ लाये
कोई थकान नहीं..
थकान वो नहीं
जो इजाज़त दे कुछ देर सुस्ताने की..
थकान वो..,
जो सराय को बनाती कभी
अपना घर नहीं..
घर वो नहीं
जिसमे रहते हैं शहर के अमीर..
घर वो..,
जिससे बे-घर हो सकता
गरीब से गरीब भी नहीं..
गरीब वो नहीं..
जिसके पास कुछ नहीं..
गरीब वो..,
जिसके पास ज़िंदगी है
पर होश नहीं..
होश वो नहीं
जिसमे पता चले की मैं हूँ..
होश वो..,
जो पता लगा ले के ख़त्म मेरे बाद भी होती
ये ज़िन्दगी नहीं..
ज़िन्दगी वो नहीं
जिसमे आलिशान हो सबकुछ..
ज़िन्दगी वो..,
जिसमे परेशानी तो हो पर कर सके वो हमें
पर-ए-शान नहीं..
पर-ए-शान वो नहीं
जिसका लुट गया हो सबकुछ..
पर-ए-शान वो..,
जिसकी निगाह में होती खुद की
कोई शान नहीं..
शानदार वो नहीं
जिसका हो मुल्क में कुछ नाम..
शानदार वो..,
जिसको होता नाम से
कुछ काम नहीं..
काम वो नहीं
जो किया जाता है हाथों से..
काम वो..,
जो हुआ जाता है नेकी से
बद नीयतों से नहीं..
नियत वो नहीं
जो रखी जाती है कुछ पाने के लिए..
नियत वो..,
जो होती है हर वक़्त फिर चाहे कुछ और हो
या हो नहीं..
होना वो नहीं
जो बन जाते है हम बुढ़ापे में..
होना वो..,
जो हो मासूम बुढ़ापे में
पर हो बचकाना नहीं..
बचकाना वो नहीं
जो रहता है मस्त अपनी मस्ती में..
बचकाना वो..,
जो ऊपर तो उठ गया बचपने से पर उठ सका ऊपर
तुलना से नहीं..
तुलना वो नहीं
जो सिखाती है फर्क अच्छे-बुरे में..
तुलना वो..,
जो फर्क तो करे पर जाने की कोएलों और हीरों में होता
बुनियादी कोई फर्क नहीं..
फर्क वो नहीं
जो देख सके खुद को खुदाई से अलग..
फर्क वो..,
जो देख ले की हुआ कभी खुदा
खुदाई से जुदा नहीं..
जुदा वो नहीं
जो हो मुकम्मल अपनी तनहाइयों में..
जुदा वो..,
जो करे खुद को तनहा महसूस पर है ऐसा
असल में नहीं..
असल वो नहीं
जो दिखाई दे साफ़-साफ़ इन नज़रों से..
असल वो..,
जिसकी तबियत छीन पाई ज़माने वालों की
काहिली भी नहीं..
काहिली वो नहीं
जो फैली हुई है चार-सूं गंदगी की तरह..
काहिली वो..,
जिसका मोमिन को अभी
पता तक नहीं..
पता वो नहीं
जो लिखा हो घर के दर-ओ-दीवार पे..
पता वो..,
जो होता काएनात में
कभी लापता नहीं..
लापता वो नहीं
जिसका होता कोई निश्चित पता..
लापता वो..,
जिसका मकीं होकर भी होता
कोई मकां नहीं..
मकां वो नहीं
जिसकी होती है दर-ओ-दीवारें..
मकां वो..,
जिसमे होती है परवाज़
पे मंजिल नहीं..
मंजिल वो नहीं
जहाँ पहुँच के आदमी ठहर जाए..
मंजिल वो..,
जो पैगाम लाये सफ़र का पर साथ लाये
कोई थकान नहीं..
थकान वो नहीं
जो इजाज़त दे कुछ देर सुस्ताने की..
थकान वो..,
जो सराय को बनाती कभी
अपना घर नहीं..
घर वो नहीं
जिसमे रहते हैं शहर के अमीर..
घर वो..,
जिससे बे-घर हो सकता
गरीब से गरीब भी नहीं..
गरीब वो नहीं..
Tuesday, November 9, 2010
सोच और सच
कैसे पता लगायें की क्या सोच है और क्या है सच..??
काश.. ये ' ओ ' की मात्र हटा देने जितना आसान होता..
किसको दें ज्यादा तरजीह - Goodness को या Godliness को..??
काश.. ये ' O ' का हिज्जा हटा देने जितना आसान होता..
यूँ तो ये इतना ही आसान है जितना दिखाई देता है..
काश.. मगर चुन लेने का हम पर यूँ भूत सवार ना होता..
कुछ ना चुनना भी तो एक चुनाव ही है लेकिन..
काश.. सिक्के के दोनों पहलुओं का क़ुबूल मुझमे होता..
फूलों के ही दीवाने हैं सब,
कांटो से दिल कौन लगाये,
कांटे ही लिए बैठें हैं अब,
फूल तो कब के मुरझाये...
चुनने की भूल की थी तब,
अब तो यह राज़ साफ़ नज़र आए,
खुशबु बनकर महके है रब,
रब ही तो कांटो में समाये...
काश.. ये ' ओ ' की मात्र हटा देने जितना आसान होता..
किसको दें ज्यादा तरजीह - Goodness को या Godliness को..??
काश.. ये ' O ' का हिज्जा हटा देने जितना आसान होता..
यूँ तो ये इतना ही आसान है जितना दिखाई देता है..
काश.. मगर चुन लेने का हम पर यूँ भूत सवार ना होता..
कुछ ना चुनना भी तो एक चुनाव ही है लेकिन..
काश.. सिक्के के दोनों पहलुओं का क़ुबूल मुझमे होता..
फूलों के ही दीवाने हैं सब,
कांटो से दिल कौन लगाये,
कांटे ही लिए बैठें हैं अब,
फूल तो कब के मुरझाये...
चुनने की भूल की थी तब,
अब तो यह राज़ साफ़ नज़र आए,
खुशबु बनकर महके है रब,
रब ही तो कांटो में समाये...
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