कौन हूँ मैं...???
" मैं " वाकई में कुछ भी नहीं...,
यह " कुछ भी नहीं " का एहसास क्या है मगर..!!
कुछ तो है........
जो
ना-कुछ और सब-कुछ के ठीक बीचों-बीच है...
लगता है ये ना-कुछ ही सब-कुछ हुआ है
कुछ ना कुछ हो कर...
ये माना की मैं कुछ भी नहीं..,
पर यह भी तो हो सकता है
की
मैं ही सब-कुछ बन गया हूँ
ना-कुछ बन कर..!!
मस्त रहना चाहता हूँ मैं
ज़िन्दगी की हर जंग में..,
डूबे रहना चाहत हूँ मैं
इश्क के हर रंग में..,
क्या करें मगर..
की
जीने का ये अंदाज़ जिन्हें नहीं बर्दाश्त
ढाल लेना चाहते हैं वो मुझे
अपने ही ढंग में....
कोई समझाए उन्हें की हम बताएँ क्या
की...,
तंग नहीं है इस क़ाएनात में कहीं भी कुछ भी...
ज़िन्दगी की हर अदा यहाँ निराली है...
कुछ भी तयशुदा नहीं यहाँ
और फिर भी इतना तो तय है
की...
उसे समझ लेने का दम भरना
एक प्रकार की गाली है...
बस...
इतना ही कहिये जनाब
की...,
गज़ब यहाँ उसकी हर अदाकारी है...
जैसे ;
दूरियां ख़त्म करना चाहो
तो ख़त्म हो जातीं हैं नजदीकियां भी,
सुख ही सुख चुनना चाहो
तो हासिल होते हैं दुःख भी,
ठीक उसी तरह ;
जैसे जन्म ले आता है मौत अपने संग में...
नहीं...नहीं जनाब...!!
हम पे यूँ तोहमत ना लगाइए
बस,
थोड़ा अपने-आप पे गौर फरमाइए...
ये अल्फाज़ जो निकल रहें हैं दिल से
ये कोई ताकीद नहीं
और
ना ही कोई नसीहत है
ना ही कोई फरेब है इनमें
और
ना ही कोई हक़ीक़त है इनमे
बस...
छाया है उसकी...
जो ढलता...,
या शायद ढलती...,
या शायद दोनों ही..,
या शायद कुछ नहीं...,
या शायद सब-कुछ....,
पता नहीं.......
बस इतना ही जानूँ
की
ढले ही नहीं वो किसी भी रंग में......
हाँ...ये बात और
की
हम ढल सकते हैं उसके ही रंग में.........
दूसरों को उसके रंग में ढालने का
कोई ठेका भी नहीं ले रखा है हमने...
की
यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं
- सिवाय उसके.....
ना ही हम कोई चालबाज़ राजनीतिज्ञ
और ना ही हम कोई गुरु-घंटाल हैं...
जो भीख मांगे वोट की सम्मान की गरज से
या मांगे आस्था कुछ पाने की लरज से...
की
यहाँ कोई सम्मान योग्य है ही नहीं
- सिवाय उसके.....
और ना ही कुछ पाने योग्य है
- सिवाय उसके.....
और ये भी
की
ना ही दूसरों को ज्ञान-ख़ुशी-प्रेम बाँट
उन्हें अपना गुलाम बनाने में हमें कोई लुत्फ़ है...
की
यहाँ ना कोई ज़ाहिर ना बातिम ना ग़ालिबन लुत्फ़ है
- सिवाय उसके.....
दूसरों से character certificate वो मांगे
जिसका अंतस में character ढीला है...
की
यहाँ कोई character है ही नहीं
- सिवाय उसके.....
तो
फिर ये हंगामा क्यूँ मचा रखा है 'मनीष'.....??
क्यूँ ये बेसिर-पैर की शेर-ओ-शायरी.....??
क्या ये है कोई लाचारी......??
या फिर है ये कोई लाईलाज बिमारी......??
तो
जवाब ये है मियाँ
की
पता नहीं.......
पता नहीं क्या है ये...
पर बड़ी मस्ती है इस रंग में
आ जा, डूब जा तू भी मेरे संग में...
हाय...मैं मर जांवा तेरी इस हँसी पे
हाय...मैं कुर्बान तेरी हर ख़ुशी पे
आँखें नम हैं देख ये मस्तियाँ
हाय...मैं निसार अपनी ही बेख़ुदी पे...
बस इतना समझ लीजिये
की...
वक़्त ही मेरा पता देने लगा है अब तो
सफ़र ही मंज़िल का मजा देने लगा है अब तो
हर कदम उठता है अब तेरी ही जानिब
कतरा ही सागर होने लगा है अब तो.............
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