ना मंजिल है
ना मुश्किल है कोई ज़िन्दगी में.....
ना हम होते हैं
ना तुम होते हो कोई बन्दगी में.....
बस एक ज़िन्दगी है
जो भरी हुई है बन्दगी से.....
दर्द और ख़ुशी
के पार भी है एक जहाँ..,
ना मनवा है
ना मानव है कोई वहाँ ज़िन्दगी में.....
बस तारी है
एक एकात्मकता का एहसास इस द्वन्दगी में....
जैसे;
खिल आया हो कोई कमल गन्दगी में....
जैसे;
गाए कोई मल्हार तिश्नगी से.....
जैसे;
लिपटा कोई भुजंग सन्दगी से.....
जैसे;
मस्त कोई मलंग अपनी कलन्दगी में....
जैसे;
करे मनीषी होश रिन्दगी में.....
जैसे;
करे कोई मजाक सन्जीदगी से....
जैसे;
खेले 'मनीष' ये खेल खिलन्दगी से.....
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