दिल में
इस कदर गहरे
जाकर पैठ गया है
ये खंजर...
की
निकालना भी चाहे जो कोई
इस ना-मुराद को अपनी जोश भरी उम्मीदगी से
तो
ना-उम्मीद कर देता है कमबख्त निकालने वाले को ही...
पैदा कर लेता है
कुछ ऐसा मंज़र...
की
हरा-भरा दिल भी हो जाता है बंजर...
यकीनन.,
मेरी जान लेकर ही
दम लेगा ये खंजर...
ये खंजर इश्क का है,
ईमान का है
और है इबादत का..,
बड़ी उम्मीदों से
तराशा था मैंने इसे
तमाम नफरतों,
तमाम बेईमानियों
और तमाम नास्तिक्ताओं के चलते...
सोचता था..,
किसी ना किसी को तो बदलना ही होगा ये मंज़र
तो फिर मैं ही क्यूँ नहीं..??
नहीं जानता था..,
की
शुरुआत मुझसे ही करेगा ये खंजर...
ये मुल्क,
ये जहां,
और ये जहाँवाले तो खैर
बालिश्त भर भी ना बदलेंगे
पर.,
मुझे बदल कर रख छोड़ेगा ये खंजर...
हाँ.,
कुछ बदल जाएगा मेरे ही अन्दर...
अब.,
ना कोई आरजू है,
ना जुस्तजू है
और ना ही अब मंजिल है कोई.,
बस..एक गुफ्तगू है
जो करता रहता है मेरा मन खुद से ही
समझ खुद को जाने कहाँ का सिकंदर...
क्या सचमुच ही
मेरा "मैं" ले गया ये खंजर...??
या
ये भी महज एक ख्याल है बस...??