मजबूर हूँ मैं और मजबूर है तू
अल्लाह हु अल्लाह हु अल्लाह हु
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कहीं ऐसा तो नहीं कि
खुदा भी बस मजबूरीवश ही क़यामत नहीं ला पा रहा
लगता है कि रोक रक्खा है चंद मासूम बेकसूरों ने उसे...
पैरों तले कि ज़मीन जब खिसकाने पे उतारू हो ज़िंदगी,
आसमान सर पे उठाने में जब लगी हो ज़िंदगी,
चारो खाने चित्त गिरा दे जब तुम्हे ज़िंदगी,
वक़्त, ए मेरे हसीं दोस्त, तब उखड़ जाने का नहीं,
रूठने-मनाने में या तलवार उठाने में भी वो दम नहीं,
मौका है, दस्तूर है ये सब्र और श्रद्धा को जगाने का,
इश्क़ से अपने यारब से लिपट कर आराम फरमाने का,
इसी रूहानी ताक़त को ये 'दीवाना वारसी' कहता है असल बंदगी
चल आजा मेरी जान मिलकर मनाएँ जश्न-ए-ज़िंदगी
उत्सव से, उल्हास से कर दें हैम इसे लबरेज़
भावनाओं के सैलाब से हमें नहीं परहेज़
चल मेरे साथ चल ए मेरे हमसफ़र
चल फिर एक बार फिर ताज़ातरीन तरीकों से जियें हम ज़िंदगी
बस इतना जान ले तू मगर कि मिटाना गंदगी नहीं कोई दिल्लगी
ज़मानेवालों ने लगा रक्खी है मोहब्बतों पे कई सारी पाबंदगी
सुना है मगर कि इश्क़ और जंग में सबकुछ जायज है ओ मेरी संगिनी...
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