मुझे पता था वादाखिलाफी रंग लायेगी फिर एक बार
Promises बदलेंगे अभी रंग हजार..
आधे मन से अधूरे तन से आधी अधूरी ढंग से मिली हो हर बार
तभी तो कसक अब भी बाकी है, और तूफानी है ये चक्कर..
कभी पूरी तरह खुल के मिलो तो दिन में तारे नज़र आयेंगे हजार
फिर ना रहेगा ये आधे अधूरे इश्क ओ जुनून का चक्कर
मुझे जो चैन ओ सुकून मिलेगा वो मेरा इनाम कबूतर
तुम पूछती हो की मेरी सुई अगर तुम पर ही अटकी हुई है और मुझे तुम ही तुम नजर आते हो हर तरफ, हर जगह, हर वक्त तो क्या तुम्हारा प्रेम भी मेरे प्रेम जैसा पावन-पवित्र या एक आयामी नहीं होना चाहिए..??
मैं तो केवल यही कहूंगा की प्रेम के रंग हजार हैं और वो बहुआयामी होते हुए भी अनेकता में एकता का दर्शन हो सकता है। यूं समझो की तुम तुम हो और मैं मैं हूं, बात तो तब बनती है जब तुम और मैं, मैं और तुम होते हुए भी "हम" हो जाएं और वो भी एक दूजे को बदले बिना।
मेरी बात अलग है ;
मैं प्रेम बांटता फिरता हूं दिल से दिल को
कोई दिमाग से ले लेता है तो कोई दिल से
इस मिल-बांट कर खाने-खिलाने, पीने-पिलाने में ही कहीं किसी पल में छुपा होता है मेरा वजूद, मेरा दर्शन, मेरा इनाम...
प्रेम की ना कोई हद है ना कोई सीमा
हदों में बांधते ही प्रेम बन जाता है बीमा
बदले में अगर कुछ भी पाने की इच्छा हो तो प्यार बन जाता है एक गौरखधंधा, एक व्यापार
बिना कुछ पाने की इच्छा के अगर खुद को पूर्ण में पूर्णतः खो सको तो मिलता है सच्चा प्यार
पूछती हो तुम की हमारे और तुम्हारे प्यार में इतना फर्क क्यों है की मुझे तुम ना मिलो तो मेरी रूह कांप उठती है और तुम्हें मेरे मिलने, ना मिलने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता..??
इतना ही कहूंगा की सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता, आहिस्ता...
तुम तुम्हारे प्रेम को नारी स्वभाव कह सकती हो या राधा तुल्य प्रेम कह सकती हो। कह सकती हो की तुम्हारा प्रेम उच्च कोटि का है और मेरा प्रेम तुच्छ या निम्न कोटि का पर उच्च हो या निम्न प्रेम तो प्रेम ही होता है। वो कहते हैं ना की प्यार घड़ी भर का ही बहुत है, झूठा या सच्चा, मत सोचा कर, मर जायेगा। यहां सोचने वाला मरे या ना मरे पर इन दो जवान प्रेमियों के बीच का प्रेम जरूर मर सकता है।
Radha ya Meera को केवल कृष्ण चाहिए था पर कृष्ण की थी गोपिकाएं हजार। इसका मतलब ये नही की कृष्ण का कैरेक्टर ढीला है या loose है। इसका मतलब सिर्फ ये है की नारी प्रकृति या स्वभाव अधिकांश monogamous हो सकता है जबकि पुरुष की प्रकृति या स्वभाव अधिकांश polygamous होता है या हो सकता है।
हर कृष्ण को असल में राधा ही चाहिए होती है पर राधा का मिलना इतना आसान नहीं होता। नंबर गेम शुरू हो ही जाता है। अहंकार कहता है की तुम अगर मेरे नंबर one हो तो मैं भी तुम्हारी नंबर one हुईं ना - वरना तो गलत बात है क्योंकी हिसाब बराबर नहीं हुआ ना - don't you know, you dumbo that women and women's liberalisation seeks equity and equality both..?? प्यार यहां आकर नंबर गेम या व्यापार बन जाता है और राधा गायब हो जाती है।
तुम मिलो तो प्रभु इच्छा
तुम ना मिलो तो प्रभु लीला
मेरे या तुम्हारे चाहे अनुसार ही अगर सबकुछ होता या हो सकता तो फिर भगवान या भगवत्ता के होने की जरूरत ही क्या थी..??
यहां बराबरी का दर्जा चाहना गलत या सही नहीं बल्कि एक तर्कसंगत व्यापार होगा।
सोचो,
स्त्री अगर पुरुष होना चाहे तो क्या होगा..??
पुरुष अगर स्त्री बन जाए तो क्या होगा..??
फूल फूल है और कांटा कांटा,
पत्ता पत्ता अगर गुलाब होना चाहे तो क्या होगा..??
अपनी अपनी प्रकृति है, अपना अपना स्वभाव है, अपना अपना निमित्त है साहब,
हर फूल अगर गेंदा होना चाहे तो प्रकृति में प्राकृतिक सौंदर्य और सृष्टि में स्रष्टा कैसे कर और क्यों होगा..??
तुम कहोगी की जब तुम खुद को तन-मन-धन से पूर्णतः सौंपती हो किसी पुरुष को तो उसे भी तो तन मन धन से पूरी तरह तुम्हारा ही होकर रहना चाहिए ना..??
फिर एक तर्क तुम ये भी लाओगी की क्या हो अगर कोई स्त्री भी किसी पुरुष की तरह बहुगामी या बहुआयामी हो जाए..??
क्या कोई पुरुष इस आयाम को सहनशीलता से पचा पाएगा..?? क्या वो भी किसी स्त्री की ही तरह बेवफाई के नगमे नहीं गाएगा..??
इतना जान लो की तुम तुम इसलिए हो की तुम्हें तुम होना पसंद है। वो तुम्हारा स्वभाव है ना की कोई प्रतियोगिता जिसमें तुम अपने प्रतियोगी से जीतने के लिए वो ही व्यवहार करने लगी जो तुम्हें पसंद नहीं या जो तुम्हारा व्यक्तिगत स्वभाव नहीं। फिर भी अपनाना चाहो ये बहुपतित्व या बहुविवाह का बेमिसाल तरीका तो जरूर अपना कर देखना ये नायाब तरीका बेवफा कहलाने का। खुद बा खुद समझ आ जायेगा कबीर का ये दोहा की;
कस्तूरी कुंडल बसे
मृग ढूंढे बन माही
त्यूं ही पग पग राम बसे हैं
दुनिया देखत नाही
सौंपता तो पुरुष भी पूरी आत्मा से ही है पर खुद को पूरी तरह सौंप देने से पूरी तरह प्राप्त करने का हक मांगना तो वैसा ही होगा की;
मैने तेरे अहंकार की पीठ खुजायी, अब तू भी मेरी पीठ खुजा
या
मैने तुझे i love you कहा अब तू भी i love you too बोल
या
मैने तुझे १०० का नोट दिया तो तू भी मुझे १०० रुपए का प्यार दे..
ये व्यापार ना हुआ तो क्या हुआ..??
एक सच्चे प्रेमी को ये वैदिक श्लोक समझना होगा:
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
।। ॐ शांति शांति शांति:।।
हिंदी में अर्थ:
वह सच्चिदानंदघन परमात्मा सभी प्रकार से सदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है।
१०० का नोट देने के बाद भी (पूर्ण रूप से खुद को सौंप देने के बाद भी) गल्ले में फिर भी १०० का नोट ही रह जाए तो प्रेम है। प्रेम देने के बाद कम नहीं होता अपितु और बढ़ जाता है और ये तब होता है जब प्रेम हिसाब-किताब नहीं मांगता या व्यापारी नहीं होता।
प्रेम प्रेमियों की प्रकृति या स्वभाव में भिन्नता को सहज रूप से स्वीकार करता है। किसी तानाशाह की तरह अपने प्रेमी को अपनी तरह बन जाने के लिए बाध्य नहीं करता।
यूं ही नहीं मिला देता वो किसी को किसी से
कुछ ना कुछ प्रारब्ध जरूर होता है उसकी लिखी में
कभी कोई किसी को कुछ सीखा जाता है बातों बातों में
तो कभी कोई किसी से कुछ सीख लेता है बातों बातों में
मुलाकातें यादें बन जाती हैं कभी तो कभी यादें मुलाकात की वजह बन जाती है
यकीन मानो की जो होता है अच्छे के लिए ही होता है
हठी मन मेरा जाने क्यों मन की इच्छा पूर्ण ना होने पर रोता है
तुम्हें अगर तुम होना अच्छा लगता है तो सबकुछ सही है वरना सबकुछ गलत है।
सच जान लेने में, सच मान लेने में और सच जी लेने में बहुत अंतर होता है।
स्वीकारोक्ति अगर सच्चे दिल से हो तो दमा दम मस्त कलंदर
वरना दिमाग वाले तो अनमने ढंग से स्वीकार कर करते हैं blunder
👍Taste the Thunder👍 (ofcourse at your own risk 😄)
Enjoy it if you can & if you must 😜