अनोखी तलब, अनूठी तलाश, अधूरी प्यास...
जिस्म की भूख, देह के सुख, मिलन की आस...
प्रेम की अग्नि, चाहत की ध्वनि, लीला-रास...
श्वासों में श्वास, होठों पर होंठ, चरम सुख पास...
अब आप इन्हें इश्क़-ओ-जुनून के फितूर कहिए, काम वासना के कीड़े कहिए या कहिए हार्मोन्स...ये मुझमें अब भी ठीक वैसे ही जिंदा हैं जैसे कभी पनपते थे।
जाग उठते हैं ये फितूर, ये कीटाणु, ये कीड़े अब भी ठीक उसी तरह जैसे कभी जवानी में भड़क उठते थे जज़्बात बन हुस्न की सोहबत में।
फर्क सिर्फ इतना की तब जिस्म जवान था, उतावला था और अब जिस्म बूढ़ा, दिल जवान और मतवाला हो चला है...
तब तुम्हारा होना जरूरी था ख्वाबों को हकीकत में बदलने के लिए और अब तुम्हारे बिना भी हकीकतें ख्वाब बन सुकून दे जाती हैं पल भर में पल भर के लिए।
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