भारतीय मर्द हो या नारी सब की एक ही कहानी है। संबंध विवाह पूर्व हों या हों विवाहोत्तर अधूरापन जैसे सबकी निशानी है।
ऐसा शायद इसलिए की बिना शर्त प्रेम (Unconditional Love) नाम की चीज का अस्तित्व ही नहीं है इस स्वार्थी जगत (Selfish/📱 Cellfish World) में। आभासी वास्तविकता और आभासी मिलन (Virtual Reality & Virtual Meetings) इस आधुनिक जगत की जैसे एक तकनीकी जरूरत बन चुकी है। चाहिए तो सबको सच्चा प्रेम ही होता है पर देने के नाम पर ला ला प्रवृत्ति आड़े आ जाती है। अक्सर तो हम प्रेम हम करते हैं - जबकि प्रेम हो जाता है। फिर इस व्यापारिक संबंध को, जिसे हम दिल के खुश रखने को प्रेम कहते हैं, करते भी हैं तो जिस्मानी, मानसिक, सामाजिक, वित्तीय या कोई और सुख पाने के लिए - सुख देने के लिए तो कदापि नहीं। देने की तो बात ही ना कीजिए साहब बस आने दीजिए। भगवान भी मिल जाए तो अच्छा है वरना धन चाहे काला हो या सफेद - क्या फर्क पड़ता है जी? जिसकी लाठी उसी की भैंस।
प्रेम आनंद देने की भावना से ओत-प्रोत हो तो परम आनंद, चरम आनंद, परमानंद या सच्चिदानंद की स्थिति में भी पहुंचा सकता है - ये तो जैसे हम भारतीय दिमाग के कीड़ों को समझ ही नहीं आता। या..शायद समझ में तो आता है पर ऐसी निस्वार्थ पहल करने वाला/वाली मूर्खता कौन करे? मैं तो दे भी दूॅं ऐसा निस्वार्थ प्रेम पर सामने वाले/वाली ने कबूल ना किया या मोल लौटाया नहीं तो?
प्रेम के जगत में सारा खेल भावना या नियत का है। किस भावना से प्रेम दिया या लिया, खाना पकाया या खाया ज्यादा महत्वपूर्ण है बजाए इसके की किसको दी या किसकी ली, कितनी बार ली या कितनी बार दी। कब और कहाॅं से ज्यादा मोल किस भावना और कैसी नियत के चलते प्रेम का आदान-प्रदान संभव हुआ का अर्थ है।
पाने के लिए दिया..??
या
दे कर ही पाया..??
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