Saturday, December 18, 2010
नहीं जानता...
क्यों हो जाता हूँ मैं इस कदर परेशान, नहीं जानता...
क्यों देखना चाहता हूँ मैं इंसान को इंसान, नहीं जानता...
यूँ तो रोज-रोज होता जाता है इंसान, हैवान से शैतान,
क्यों दिखाई दे जाता फिर भी उसमे भगवान्, नहीं जानता...
छलियों की एक फ़ौज सी खड़ी है तुम्हारे इर्द-गिर्द,
क्यों गुलाब, क्यों होते नहीं तुम लहू-लुहान, नहीं जानता...
चोर-उचक्कों की बारात के दुल्हे क्यों ना होंगे राजा,
क्यों मुसलसल मगर फकीर का ईमान, नहीं जानता...
जिसे देखो रातों-रात सितारा बन जाने की जुगाड़ में लगा है,
क्यों मगर सूरज को जलना इतना आसान, नहीं जानता...
देख कर ये भीषण महामारी, लग जाते हैं वो इलाज में,
क्यों होते कड़वे मगर ये मसीहाई निदान, नहीं जानता...
अपने में ही मस्त रहना सिखाते हैं मुझे ये दुनिया वाले,
क्यों कोयल मगर गाती सावन की अजान, नहीं जानता...
मेरी ही तरह रोता है हर शख्स ज़माने की बदहाली पर,
क्यों उसे मगर खुद की नेकी का गुमान, नहीं जानता...
नहीं जानता ये नामाकुल 'मनीष' ज़रा भी, कुछ भी,
क्यों मगर जानने वाले बने बैठे हैं नादान, नहीं जानता...
क्या आप जानते हैं......?????
The name is enough to describe me.
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यूँ तो रोज-रोज होता जाता है इंसान, हैवान से शैतान,
ReplyDeleteक्यों दिखाई दे जाता फिर भी उसमे भगवान्, नहीं जानता...
kyonki usme bhi hota hai ek katra bhagwaan