वो सदा से
फकीरों की झोली में ही मिला है...
क्या कीजे
इश्क कुछ न चाहने वालों का सिल-सिला है...
मांगते ही कुछ
पराया हो जाता है वो..,
भिकारियों को कब मगर माँगने से गिला है..!!
देता है वो
जो है मेरे हक़ में..,
हक़ वालों को कब मगर नसीब का मिला है..!!
करता है
हर मुराद मेरी वो पूरी..,
मुरीद का कब मगर दूजा कोई किला है..!!
दे दिया उसने
सब कुछ बगैर मन्नत माँगे ही..,
क्या पता किस नमाज़ी की दुआओं का मगर ये सिला है..!!
मनोकामनाएँ पूरी करने को
पूजता-पुजवाता है पुजारी..,
हरे-हरे नोटों से कब मगर दिल में हरी खिला है..!!
ख्वाहिशों की फेहरिस्त
हम तलबगारों से भी लम्बी..,
आफ़ताब कब मगर हमारे अरमानों से जिला है..!!
माना के
दुःख, दर्द, तकलीफ है 'मनीष'..,
ज़ीस्त कब मगर बस एकरंगी हला है..!!
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