एक और पहलु :
बकौल 'नीरज' ;
आदमी को आदमी
बनाने के लिए
जेब कफ़न में
लगाना चाहिए..........
और अब ;
ज़िन्दगी को ज़िन्दा
रखने के लिए
क़यामत का दिन
तय हो जाना चाहिए..........
हर दिन क़यामत सा लगे
ऐसा कोई केलंडर बनाना चाहिए..........
देख सकें हम अपनी-अपनी करतूत
ऐसा कोई आरसा बनाना चाहिए..........
बना सकें हम अपनी साँसों को घड़ी
ऐसा कोई कारख़ाना चाहिए...........
कर सकें हम अपना ही फ़ैसला
ऐसा कोई दिल दीवाना चाहिए..........
और तब...
तह-ए-दिल से कह सकेंगे हम
की :
ले आओ क़यामत का दिन
हाँ ...
अब मैं तैयार हूँ...
पुकारो मुझे कुछ यूँ
की तोड़ कर सारी ज़ंजीरें
मैं तुममें समा जाऊं...
तुम्हारे-मेरे बीच की
अदम इन दूरियों को
हमेशा-हमेशा के लिए मिटा सकूँ...
लिपटा लो अपने से
मुझे तुम कुछ इस कदर
की मैं खो जाऊं...
ज़िन्दगी हो तुम मेरी
कोई पल-पल तड़पाने वाली मौत नहीं
जी लो तुम मुझे कुछ यूँ
की दुबारा मैं यहाँ लौट न सकूँ...
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