Friday, December 9, 2011

एक थप्पड़


एक थप्पड़
जो
जड़ दिया होता
हमने
खुद को कभी
तो
होता ना फिर
देश का हाल ये कभी
रसीद
कर दिया होता
माँ ने
जो जोर का एक तमाचा
बचपन में ही कभी
तो
यूँ बिगड़े ना होते
ये नौनिहाल कभी
माना
की सुनाई पड़ती है
थप्पड़ की वो गूँज डॉ डेंग को अब भी
कर्मों से हमारे
वाकिफ करवाने को मगर
क्यूँ दरकार हो हमें दिलीप कुमार कोई
क्योंकि
खुद को किसी भी कसौटी पर कसने के लिए
तैयार नहीं हम
शायद इसीलिए
सोना होता जाता है रोज महंगा
और
आदम वैसा का वैसा खस्ताहाल है अभी
एक चांटा
कभी अपनी मगरुरियत पर भी तो लगा कर देख
दावा है मेरा
की फिर ना लगेगा मुल्क तुझे
इतना बदहाल कभी
तू ही नहीं जब सुधार सका तू खुद को
तो
तेरा ये एक थप्पड़ क्या ख़ाक कर पायेगा
दुनिया को निहाल कभी
अब भी वक़्त है
जाग जा
झाँक आईने में
तस्वीर बदलना चाहता है गर तू इस मुल्क की
बा-हर-हाल अभी...

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