जिसको अपना "जीसस"
अपना "वली", अपना "अली"
अपना "गुरु", अपना "नानक"
अपना "सबकुछ" मानते हैं हम
उसी की बातों को हर वक़्त टालते हैं हम...
पहले दुनियादारी निभा लें सरकार
फिर आप और आपके वचन तो हैं ही शिरोमणि
यूँ सालों-साल
खुद को बारहा रालते हैं हम...
क्या खूब हैं ये प्यारे-प्यारे बोल-वचन
बस इन्ही के सहारे ही तो
खुद को चौरासी करोड़ योनियों में
डालते हैं हम...
फिजूल बोले दास कबीर
की "कल करे सो आज कर, आज करे सो अब...."
बूझ ना पाए दास कबीर
की एक-एक पल में
हज़ार-हज़ार अरमान पालते हैं हम...
फिर ऐसी जल्दी भी क्या
मोक्ष-निर्वाण-मुक्ति की
इसी जल्दबाज़ी को तो "ओशो" के संसार में
वासना की सहेली मानते हैं हम...
जिसे जो भाये
वो मतलब निकाल सकता है वो
इंसानों को यूँ ही नहीं
खुदाओं का खुदा मानते हैं हम...
उलझा दे तो 'मन'
सुलझा दे तो 'इश'
मन को इश बना
खुद को बेवजह सालते हैं हम
जिसको अपना "सबकुछ"
मानते हैं हम
उसी की बातों को
साल दर साल टालते हैं हम...
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