MENTAL PEACE |
बस ...
एक फाँस का,
या यूँ कहूँ के एक नश्तर का एहसास है,
खामोश ही रह जाते हम बेदर्दी,
शुक्र !!
के वो बर्दाश्त-ए -हुनर तेरे पास है।
सही कहते हैं वो मियाँ jordon,
की
"जो भी में कहना चाहूँ
बर्बाद करे अलफ़ाज़ मेरे",
चुप रह जाने का ही साड्डा हक़ अब तो बचा है पास मेरे
ये तब ..
की जब कौन, क्या, कहाँ और क्यूँ हूँ में
जैसे basic सवालों तक का जवाब नहीं है पास मेरे।
तो फिर ..
अपने अहंकारी इल्म, रिद्धि-सिद्धि,
ज्ञान-ध्यान,
इश्क-जूनून, सेहत-सुकून के झूठे-मोठे राग
आलाप रहा हूँ मैं किसलिए ..??
चुप करवाने में बरसों से लगा हुआ है
ये ग़मगीन ज़माना मुझे,
ना ही में मरता हूँ
और ना ही मेरी आती-जाती साँसों का
कोई ख़ास मकसद नज़र आता है मुझे।
चलो ...
तब तक अपने होठों को सी लेता हूँ मैं
तब तक अपनी ज़हरीली जुबान को तालू से ही चिपका लेता हूँ मैं
के जब तक के
मौन-मर्यादा की नई कोई भाषा जनम नहीं ले लेती मुझमें।
सुना है हमने,
की
जुबान से अच्छी-अच्छी और मनमोहक बातें करने वाले तो
कई अरब मिल जाते हैं इस दुनिया में हमें
पर,
उन बातों का ज़िन्दगी में अमल में ला कर जीने वाले
फकत "नबी, वाली और चार यार" ही मिलते हैं इस जहान में हमें...
और बस इसीलिए,
मेरे चुप रहने सम्बन्धी वादों को बहुत seriously मत ले लेना आप ;-)
की बस
ग़ालिब की बादाखारी पर ही यकीन है हमें :-)
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