फिर वो मोहब्बत नहीं
जो रोए-रुलाए
आज़माए
या फिर अश्रु बहाए ग़म के,
हाँ मगर ...
आनंद की धारा बहे निसदिन अगर
तो जान लो
की बात पार हुई अक्ल, सोच और समझ के,
जागो राम जागो !!
की क्या रक्खा है इस मोह-माया के जंजाल में ??
जिस्मों के मिलने-मिलाने की,
दिलों के टूट-फुट जाने की,
दूरियों - नज़दीकियों की,
इन्तहा-ए-इंतज़ार की,
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाने की बात ना कर हमसे वाईज़
कीजिये ये दोमुही बातें आप उनसे
जो रहते हैं दो जहाँ में होकर के सब से पराए
यहाँ तो ना बिछडन है,
ना दर्द-ए-जुदाई है,
ना कोई अनबन है
और ना ही कोई फ़लसफ़ा-ए-दस्तूर बचा है ज़माने का
ज़मानात्दारों को खुश करने के लिए
इश्कां है हमारी आशिक़ी
और बस
वही है ...वही है ...वही है ...
हाथ पकड़ कर वो साथ चलें
जिनका दिल नहीं
सिर्फ
जिस्म ही मिला है अब तक अपने हमसफ़र से
हमसफ़र है वो तेरा
कोई गुलाम नहीं
जो कदमताल करता चले वो तेरे पीछे-पीछे
क्यूँकर चले वो तेरे मन मुआफिक
के वक़्त के साथ बदल जाते हैं अंदाज़ सभी
और फिर
वक़्त के साथ पल-पल बदलते रहने की
इंसानी फितरत नहीं अब कोई बात नई
माँ कसम !!
लाजवाब है ये इंसानी फितरत
वर्ना तो इंसानी भी एक कठपुतली की तरह
जिंदा लाश ही बनकर रह जाता
प्यार नहीं व्यापार होती है वो मोहब्बत
जो अपनी ही जानेमन पे जमाती रहती है
अपने ही मगरूर दिल के हिसाब-किताब से
जीने का तरीका सीखाए चले जाती है बे-हिसाब
ताज्जुब ये !!
के हक समझती है वो अपने इस अनैतिक अधिकार को
बस इसीलिए शायद
रोती रहती है वो ज़ार - ज़ार
होकर के तनहाइयों में खुद से ही बेज़ार
दिल के अफ़साने भी हकीकत हो सकते हैं कभी
बन जाते हैं वो हकीकत उस दिन जिस दिन
दिल से कबूल कर लेते हैं हम
बेमिसाल ये क़ाएनात तसव्वुर की, खुदा की, रसूल की
आसान नहीं मगर यहाँ आशिक हो जाना
पलकों पर काँटों को सजाना
आशिक को मिलती हैं गम की सौगातें
सबको नहीं मिलता ये खज़ाना
[-ये चार पंक्तियाँ सशुक्रिया उधार ली गई है जनाब इरशाद कामिल जी के कलाम में से ]
नादानों की नादानियों का
क्यूँकर भला-बुरा माने हम जैसे बेवक़ूफ़
ईमान हमें रोके है
जो खींचे है हमें कुफ़्र
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