रोज रात मर जाता मैं
सुबह फिर जी उठता हूँ मैं
उम्र हो गयी चलते हुए ये नाटक-नौटंकी
जाने कौन जिलाता है मुझे यूँ
जाने क्यों जिलाया जाता हूँ मैं
जाने क्यों जिलाया जाता हूँ मैं
क्या वो तुम हो या है वो मेरा नसीब
क्या वो इश्क़-ओ-जूनून है या है कोई अज़ाब
क्या वो सब्र-ओ-सुकून है या है वो कोई यकीन अजीब
क्या वो कोई इब्तदा है या है वो कोई बेइंतेहा सा ख्वाब
इम्तेहान है वो या है वो मेरे मनचले दिल की कोई बेजान सी तरकीब
दोस्त कहूँ मैं उसे या फिर मान लूँ कोई बेपरवाह रकीब
जो भी है, है वो बड़ा दिलकश या है शायद कोई जानेमन हसीन....,
कभी साथ होता है वो मेरे मेरा हमदर्द बनकर
तो कभी साथ देता है वो बनकर के मेरा हमसफ़र
हमनशीं बनकर निभाता है साथ कभी वो
तो कभी हमसाया हो जाता है साथ मेरे जैसे साया कोई
सदियों से खेला जा रहा है ये खेल मुक़द्दर का मेरे साथ
या फिर शायद, ये है मेरी गुस्ताख़ नियतों की सलीब
तनहाई सोती है यूँ तो रोज रात मेरे साथ
अकेलेपन में मगर पाता हूँ मैं खुद को खुद के सबसे करीब
क्यों हुजूर, है ना बड़ी अजब-गज़ब ये इश्क़ की सौगात
हर सुबह उठाती है तनहाई मुझे बनाकर के 'दीवाना' ज़हनसीब
ना-नुकुर करने की बड़ी ही मज़ेदार आदत है उनको
बड़ी नाज़-ओ-अदा से ज़ुल्फ़ें झटक के कहते हैं वो
की कोई उम्मीद नहीं बची अब तेरे-मेरे मधुर मिलन की
जा मर जा यूँ ही तू बदनसीब
पूछता हूँ बड़ी ही मासूमियत से मैं उनसे फिर
की तय ही है जब सब तो जी रहे हैं हम यूँ मर-मर कर क्यूँ
जाने क्यूँ है मुझे पूरा यकीन
की गर उन्हें अपनी निराशा भरी सोच के दुष्परिणामों की ज़रा भी खबर होती
की गर उन्हें अपनी निराशा भरी सोच के दुष्परिणामों की ज़रा भी खबर होती
तो वो कभी भी मेरी आशा भरी सपनो की दुनिया को दोषपूर्ण ना मान बैठते
जीने देते वो मुझे मेरे हाल पे, यूँ मुझे बीमार-ए-दिल ना मान बैठते
क्या करें मगर मैं जो हूँ सो हूँ
जो है सो है और जो नहीं है सो नहीं है.........!!
जो है सो है और जो नहीं है सो नहीं है.........!!
Man is bad case....isn't it?
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