इस दिल-ए-नादाँ ने भी दिल से कुछ देने की जुर्रत की थी...,
अफ़सोस मगर...के क़ुबूल ना हुई वो भी, दुआओं की तरह..!!
भला भास्कर को कौन सिखा सकता है देने की कला..!!
दिए चला जाता है वो खुद को जला जला...
एवज में मगर उसे कुछ भी दरकार नहीं..
चलो भास्कर से सीखी जाए देने की कला..
ये सच है की भास्कर को कोई नहीं सिखा सकता की देना क्या और कैसे होता है उलट भास्कर से ही सीखनी होगी हमें ये कला I खासकर तब जब इसके सिरमोर खुद "रमेश" और "चन्द्र" हों I पर क्या कीजिये इस दिल का जो जब भास्कर की तरह देने पे आ जाता है तो ये भी नहीं सोचता की उसकी कड़ी धुप से कोई जल भी सकता है I दिल भी जब देने पे आता है तो भूल जाता है की उसके कड़े बोल-वचन किसी का दिल जला भी सकते हैं I
और क्यों करे फिकर भास्कर किसी की ?
उसे किसी से कुछ "लेना-देना" तो है नहीं I वो तो बस अपने काम से काम रखता है, फिर कोई फले-फुले या जले I इस दिल का भी कमोबेश यही हाल है I ना छपास की है भूख, ना इस बात की फिकर की कोई क्या सोचेगा I एक ज़रा सी भी आस रख ले ये दिल बदले में कुछ चाहने की तो सच से दूर हो जाता है और कबीर साहब एकदम नाराज हो कह उठते हैं :
चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह,
जिसको कछु ना चाहिए वो ही शहंशाह
अत्यंत हर्ष हुआ आज, २७ सितम्बर 2010 का दैनिक भास्कर देख कर की चलो आज के इस हवस पूर्ण युग में कोई तो है जो देने के सुख की बात कर रहा है I भले ही बात हफ्ते भर में नहीं सिमट सकती पर फिर ये भी तो है की हर बड़ी चीज की शुरुआत छोटे से विनम्र प्रयास से होती है I
साधुवाद आपका की आपने "दान" के विषय में हमें सोचने-समझने का ही नहीं बल्कि अपने जीवन में इसे उतारने का अवसर प्रदान किया है I
ज्ञान दान, अन्न दान, समय दान से सम्बंधित आलेख पढ़ मन पुलकित हो जाना स्वाभाविक था पर जाने क्यों कुछ कमी सी खटकती रही दिल में और वो बार-बार उछल-उछल कर हमें खलील जिब्रान की १९२३ में छपी पुस्तक "पैगम्बर" की याद दिलाता रहा I
खलील ने इस पुस्तक में जो कुछ दान के विषय में लिखा है वो अतुलनीय है I खलील के छंदों में ख़ास बात ये होती है की वो अपने तर्क वहाँ से शुरू करते हैं जहां जाकर हमारे तर्क ख़त्म से हो जाते हैं I खलील का नजरिया हमारी सोच को और व्यापक बना देने में सक्षम है पर केवल तब ही जब हम में सच को ज्यूँ के त्यूँ स्वीकार करने की मौलिक शक्ति हो I इस शक्ति के बगैर हमें सच कडवा ज़हर सा लगेगा I
आने वाले ६ दिनों में भास्कर देने के सुख के विषय में अपनी बातें कह निश्चित रूप से हमें अनुग्रहित करेगा पर उस से पहले भास्कर से जुड़े परिवार के नवग्रहों को ही नहीं बल्कि अनगिनत सितारों को भी ये जान लेना सर्वथा उपयुक्त होगा की असल में दान या देना होता क्या है I नहीं...??
इस ज्ञान की रौशनी में जब इबारत आपके कलम से निकलेगी तो स्वाभाविक रूप से हम पाठकों के लिए ना केवल ज्ञानवर्धक अपितु तुष्टिकारक भी होगी I
इश्वर से इस प्रार्थना के साथ के ऐसा ही हो, खलील जिब्रान को उद्यत करता हूँ..
स्वीकार हो..
दान
"तब एक धनि व्यक्ति ने कहा : हमें दान का अर्थ समझाओ I
उसने उत्तर दिया :
जब तुम अपनी भौतिक सम्पदा में से दान करते हो तो, तो कुछ ना देने जैसा होता है तुम्हारा दान I
आत्म-दान करना ही वास्तविक दान है I
तुम्हारी भौतिक सम्पदा उन वस्तुओं के सिवा और क्या है, जिन्हें तुम इस डर के कारण सबसे बचाकर रखते हो की तुम्हें कल उनकी जरुरत पड़ सकती है ?
और वह भी कैसा कल ? कल का दिन उस अति दूरदर्शी को कुत्ते को क्या देगा, जो पवित्र नगर के तीर्थ यात्रियों के पीछे चलता हुआ रेगिस्तान के बेनिशान रास्तों पर जहाँ-तहां हड्डियाँ छिपा दिया करता है ?
और जरुरत का डर क्या स्वयं भी एक जरुरत नहीं है ?
तुम्हारा कुआं जल से भरा हो, फिर भी तुम प्यास से डरो, तो क्या वह एक कभी ना बुझ सकने वाली प्यास नहीं होगी ?
कई लोग हैं, जो पास में बहुत कुछ रहते हुए भी बस थोडा सा अंश दान कर देते हैं और वह भी यश की कामना से I उनकी यही परोक्ष कामना उनके दान को अपर्याप्त बना देती है I
ऐसे भी लोग हैं, जिनके पास बहुत थोडा है और वे सारा-का सारा दे डालते हैं I
ये जीवन में और जीवन की सम्पन्नता में आस्था रखनेवाले लोग होते हैं और इनका भण्डार कभी खाली नहीं होता I
दुसरे हैं, जो कष्ट से दान करते हैं और यही कष्ट उनका ईमान बन जाता है I
ऐसे लोग भी हैं, जो दान करते हैं और उन्हें दान करते कष्ट नहीं होता, न उन्हें प्रसन्नता की कामना होती है, न पुण्य कमाने की I
ऐसा है यह दान, जैसे किसी एकांत घाटी में हीना अपनी महकती हुई साँसों को पुरे वातावरण में बिखरा दे I
ऐसे ही दाता के हाथों के माध्यम से परमात्मा का सन्देश सुनाई देता है और उसकी आँखों के पीछे से परमात्मा पृथ्वी की तरफ देखकर मुस्कुराता है I
किसी की याचना पर दान करना अच्छा है, किन्तु उससे कहीं अच्छा है, बिन मांगे स्वेच्छा से देना I
ऐसे मुक्त दानी को दान की क्रिया से अधिक आनंद इस बात से मिलता है की उसके दान से उपकृत होने वाला कोई व्यक्ति उसे दिखाई दे गया है I
संसार में ऐसा क्या है, जिसे तुम अपने लिए बचा कर रखना चाहो ?
तुम्हारे पास जितना कुछ है, वह कभी-न-कभी किसी और को मिल ही जाएगा I
फिर क्यों ना अभी दे डालो की दान का मौसम तुम्हारा हो, तुम्हारे वारिसों का नहीं ?
तुम अक्सर कहते हो, ' में दान करूँगा, किन्तु केवल उसे ही जो दान का अधिकारी हो I '
तुम्हारे उद्यान के वृक्ष तो ऐसा नहीं कहते, न ही तुम्हारे चरागाहों के पशु वृन्द I
वे देते हैं की जी सकें, क्योंकि न देना उनकी मौत है I
निश्चित ही जो दिनों को और रातो को प्राप्त करने का अधिकारी है, वह तुमसे बाकी चीजों को भी प्राप्त करने का अधिकारी है I
वह जो विश्व-प्राण के समुद्र के जल को पीने का अधिकारी है, वह तुम्हारी शुद्र सरिता में से अपना प्याला भरने का अधिकारी तो है ही I
किस रेगिस्तान की विशालता तुम्हारे द्वारा किसी के दान को स्वीकार करने की दृढ़ता की, साहस की......नहीं, दानशीलता की बराबरी कर सकती है ?
तुम होते कौन हो की जरूरतमंद लोग सिर्फ इसलिए तुम्हारे सामने अपने शरीर को चिर-फाड़कर दिखाएँ और अपनी इज्ज़त को बेनकाब करें की तुम उनकी औकात को, नंगेपन को और उनकी शान को शर्मिंदगी की हालत में देख सको ?
पहले यह तो देख लो की तुम स्वयं दाता बनने या दान का उपकरण बनने के अधिकारी हो भी या नहीं ?
सच पूछो तो जीवन ही जीवन को दान करता है, जबकि तुम, जो दाता होने का दंभ करते हो, केवल उस दान के गवाह बनते हो I
तुम जो जरूरतमंद हो, तुम कृतज्ञता के काल्पनिक भार को मत ढ़ोओ, अन्यथा तुम स्वयं अपने दाता के कन्धों पर भार रख दोगे I
अच्छा होगा की तुम अपने दाता के साथ मिलकर उसके उपहारों को ऊपर उठाओ, जैसे पक्षी के दो डैने मिलकर उड़ान भरते हैं I
क्योंकि ऋण के प्रति आवश्यकता से अधिक आभार जतलाते रहना उस दाता की उदारता पर अविश्वास प्रकट करना है, जिसकी माँ यह उदारमना धरती है और पिता स्वयं परमपिता परमात्मा है I "
आपका ही,
मनीष बड़कस
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