रास्ते ही जब
मंजिल लगने लगे
मंजिलें अयाम हुईं...
सफ़र ही जब
सुकून-ए-मुलाक़ात दे गया
मुलाकातें तमाम हुईं...
अब ना कोई दर्द
ना रंज-ओ-ग़म
ना ख़ुशी है कोई..,
ज़िन्दगी खुल के
गले मिली जब मौत से
परदेदारियाँ हराम हुईं...
दिल खोलने में
यारोँ को कब परेशानी थी
ये अदा तो
दोस्तों की जानी-पहचानी थी
मुश्किल तो आती थी
बटुए को खोलने में..,
सिलने चले जब
जेब कफ़न में
समझदारियाँ हराम हुईं...
इश्क में हमारी
यूँ हँसी उड़ जाएगी
ये कभी सोचा ना था
यादें हमारी
यूँ हमें रुलायेंगी
ये कभी सोचा ना था
डरते रहे
ता-उम्र हम
अपनों के दफ़न से..,
देखा परायों को
जब होते अपने ही साथ ख़त्म
दुश्वारियाँ हराम हुईं...
मत लो
मेरी चिंता अब कोई भी
करो ना
मेरा अब एतबार कोई भी
इस सरफिरेपन का
नहीं है अब इलाज कोई..,
दिल काबिज हुआ
जिस दिन दिमाग की जगह
होशियारियाँ हराम हुईं...
परखने चले जो हम
आंसुओं की ज़बान
जाना की बस
अपने ही मर्तबे से
थी हमारी पहचान
देखा किये हम
बस अपना ही पहलु..,
दिखाया जब वक़्त ने
आईना हमें
तरफदारियाँ हराम हुईं...
कैसे आ जाऊं
मैं तुम्हारे पास
कैसे बुझाऊं
मैं ये अबूझ प्यास
तुम ही बताओ ना
ए मेरे हमनवाज़..,
'मनीष', छूटी जब
ये दोयम सी आस भी
दुकानदारियाँ हराम हुईं...
कुछ भी
माँगने-देने लायक
ना सीरत ना सूरत है मेरी..,
बस..
एक ज़िन्दगी है
जो जीता हूँ
दम-ब-दम...
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