अब तक अप्रकाशित
यह कहानी नहीं अपितु एक सत्य घटना है।
ये किस्सा तब घटा जब हमारे पंडितजी महज एक पत्रकार ही थे। जड़मति कह लीजिये, मुर्ख कह लीजिये या मूढ़ कह लीजिये पर इन सब रत्नों से सुसज्जित तो ये पत्रकार महोदय तब भी थे और अब भी हैं। उधार का ज्ञान बाँट-बाँटकर आप अज्ञानियों द्वारा ज्ञानी या पंडित जरुर कहलाये जा सकते हैं पर पांडित्य को सचमुच अमल में लाकर पल-पल सद्चितानंद जीवन जीने के लिए ना केवल
बुद्धि,
रिद्धि-सिद्धि,
चिंतन-मनन,
ज्ञान-ध्यान,
भक्ति-शक्ति,
काम-क्रोध-मोह-माया-अहंकार के अन्धकार से निजात पाने की गुरु-कृपा,
चाह से, मनोकामनाओं, महत्वाकांक्षाओं से, इच्छाओं-अभिलाषाओं से भरे मन से मुक्त होने की कला,
इश्क-ओ-जूनून,
दीन-ओ-ईमान,
नेकी की राह पर चलने के लिए नूर-उन-लला की दरकार होती है बल्कि इन सब से भी ज्यादा
एक पाक-साफ़ नियत,
एक निर्मल ह्रदय,
एक प्रेमपूर्ण आत्मा,
एक हास्य-विनोद से परिपूर्ण चित्त,
एक सहज सहिष्णुता का सौन्दर्यपूर्ण भाव,
एक सत्यनिष्ठा से लबरेज कर्त्तव्य परायणता भी मुलभुत स्वभाव का अंश होना जरुरी होती है।
जीवन प्रबंधक बनकर या उधार के ज्ञान को निपुणता से अपनी वक्तव्य शैली का लोकलुभावन इस्तेमाल करने से कोई विजयी या सफल तो हो सकता है पर स्वयं की अनुभूति ना होने का ज़ख्म तो सदा ही धिक्कारता रहेगा अपनी चाणक्य नीतियों पर चलने वाली चालाकियों को। भीतर का खोखलापन भी यकायक ही अपनी मूढ़ता के दर्शन, गालिबन या बातिमन अंदाज़ में बार-बार ज़ाहिर करता ही रहेगा।
फिर कोई ना कोई परमात्मा का संदेशवाहक, नाई के रूप में आकर ना केवल आपको आपका असल चेहरा आपके ही मन-दर्पण में दिखलायेगा अपितु आपकी केश-सज्जा, मैनीक्योर, पेडीक्योर, सर की चम्पी, तन की मालिश भी कभी ना कभी जरुर करेगा ही। ठीक वैसे ही जिस तरह उस दिन एक कैसेट-cd शॉप की मालकिन, जो की इन मूढ़ पत्रकार महोदय की नापाक नजरों में मात्र एक सेल्स गर्ल ही थी, ने अख्तियार किया था।
हुआ ये की शहर में सिर्फ और सिर्फ असली कंपनियों की कॉपी राईट प्राप्त कैसेट/cd का विक्रय करने वाली एक दूकान खुली। अब इन नकली पत्रकार महोदय ने अपने आतंरिक नकलीपन के चलते अब तक केवल नकलचियों को ही सफल होते देखा-समझा था तो वो असली कैसेट/cd में से अपने पसंदीदा गीतों/फिल्मो को चुन-चुनकर भरने-भरवाने, रिकॉर्डिंग/downloading/ करने-करवाने वालों को ही अपनी अज्ञानता और मुर्खता के चलते एक सफल धंधा समझते थे। तो इन तात्कालीन bureau चीफ को ये विशवास ही नहीं था की ईमानदारी की राह पर चलने वाली दूकान भी भ्रष्ट भारतीयों की भ्रष्टतम व्यवस्था और सरकार के होते हुए भी चल सकती हैं। ये एक ऐसा विशाल प्रश्न, धारणा या यूँ कहें की संदेहग्रस्त वाचाल बुद्धि की मूढ़ता थी जो इन पत्रकार महोदय से सेल्स गर्ल से ये पूछने की भूल करवा बैठी की : "मेडम ! ये दूकान चलती भी है या नहीं?"
मेडम की जिंव्हा में भी उस दिन जैसे परमात्मा रूपी सरस्वती देवी शास्वत थी जो सहसा उनके मुख से ये कह गयी : "आप होते कौन है हमसे ये पूछनवाले? और कर क्या लेंगे आप ये जानकार भी? आप तो बस इतना जान लीजिये की प्रभु ने कभी हमें आप जैसे निकृष्ट लोगों से भीक नहीं मंगवाई है। आपसे हम कभी कुछ मांगने आये क्या?"
इतना सुनते ही पत्रकार महोदय के तो जैसे होश ही उड़ गए। भाव-भंगिमाएं क्रोधित हो उठी और आत्मा शर्मसार हो दूकान से तुरंत कूच कर गई।
बाद में इन ब्यूरो चीफ पत्रकार ने अपने बहुत सारे नुमाईंदे, संवाददाता, चेले-चकोले, आदि-आदि नकली के ग्राहक बनाकर इस दूकान की हकीकत जान्ने के लिए भेजे पर साँच को आँच कहाँ और पनिहारन को साज़ कहाँ?
बहुत सारी शर्मनाक चालें चली फिर इन साहब के व्यथित अहंकारी मन ने पर सत्य को परेशान किया जा सकता है पर पराजित नहीं किया जा सकता। कदापि नहीं - चाहे आप कितने ही बड़े दैनिक भास्करी विजयी शंकर क्यों ना हो।
सत्य मेव जयते।
शायद अब भी यही हाल है इन तथाकथित पंडित जी का क्योंकि अब भी स्वयं की कोई रचना ये आज भी नहीं कर पाते हैं। बस कभी ओशो तो कभी अवधेशानंद गिरी महाराज या कभी कोई पतंजलि के सूत्र या फिर किसी विवेकानंद की असल टिप्पणियों के आसपास अपने नकली संसार की रचना करते रहते हैं। इतने वर्षों पश्चात भी ये महोदय वहीँ के वहीँ वाचं, मुखं, पदम् स्तंभित ही होकर रह गए हैं। जिंव्हा का किलय हो चूका है और कलुषण भी। बुद्धि का तो जैसे विनाश ही हो चूका है।
अल्लाह ही मालिक है, रहमान है, मेहरबान है, करतार है, दयानिधान है, कृपालु है ऐसे मुर्खा दे मुखादेपतियों का।
रहम करो या वारिस
करम करो या वारिस
के ये वक़्त-ए-रहम है, ये वक़्त-ए-करम है मेरे दाता
आमीन, आमीन , सुम-आमीन।
ये किस्सा तब घटा जब हमारे पंडितजी महज एक पत्रकार ही थे। जड़मति कह लीजिये, मुर्ख कह लीजिये या मूढ़ कह लीजिये पर इन सब रत्नों से सुसज्जित तो ये पत्रकार महोदय तब भी थे और अब भी हैं। उधार का ज्ञान बाँट-बाँटकर आप अज्ञानियों द्वारा ज्ञानी या पंडित जरुर कहलाये जा सकते हैं पर पांडित्य को सचमुच अमल में लाकर पल-पल सद्चितानंद जीवन जीने के लिए ना केवल
बुद्धि,
रिद्धि-सिद्धि,
चिंतन-मनन,
ज्ञान-ध्यान,
भक्ति-शक्ति,
काम-क्रोध-मोह-माया-अहंकार के अन्धकार से निजात पाने की गुरु-कृपा,
चाह से, मनोकामनाओं, महत्वाकांक्षाओं से, इच्छाओं-अभिलाषाओं से भरे मन से मुक्त होने की कला,
इश्क-ओ-जूनून,
दीन-ओ-ईमान,
नेकी की राह पर चलने के लिए नूर-उन-लला की दरकार होती है बल्कि इन सब से भी ज्यादा
एक पाक-साफ़ नियत,
एक निर्मल ह्रदय,
एक प्रेमपूर्ण आत्मा,
एक हास्य-विनोद से परिपूर्ण चित्त,
एक सहज सहिष्णुता का सौन्दर्यपूर्ण भाव,
एक सत्यनिष्ठा से लबरेज कर्त्तव्य परायणता भी मुलभुत स्वभाव का अंश होना जरुरी होती है।
जीवन प्रबंधक बनकर या उधार के ज्ञान को निपुणता से अपनी वक्तव्य शैली का लोकलुभावन इस्तेमाल करने से कोई विजयी या सफल तो हो सकता है पर स्वयं की अनुभूति ना होने का ज़ख्म तो सदा ही धिक्कारता रहेगा अपनी चाणक्य नीतियों पर चलने वाली चालाकियों को। भीतर का खोखलापन भी यकायक ही अपनी मूढ़ता के दर्शन, गालिबन या बातिमन अंदाज़ में बार-बार ज़ाहिर करता ही रहेगा।
फिर कोई ना कोई परमात्मा का संदेशवाहक, नाई के रूप में आकर ना केवल आपको आपका असल चेहरा आपके ही मन-दर्पण में दिखलायेगा अपितु आपकी केश-सज्जा, मैनीक्योर, पेडीक्योर, सर की चम्पी, तन की मालिश भी कभी ना कभी जरुर करेगा ही। ठीक वैसे ही जिस तरह उस दिन एक कैसेट-cd शॉप की मालकिन, जो की इन मूढ़ पत्रकार महोदय की नापाक नजरों में मात्र एक सेल्स गर्ल ही थी, ने अख्तियार किया था।
हुआ ये की शहर में सिर्फ और सिर्फ असली कंपनियों की कॉपी राईट प्राप्त कैसेट/cd का विक्रय करने वाली एक दूकान खुली। अब इन नकली पत्रकार महोदय ने अपने आतंरिक नकलीपन के चलते अब तक केवल नकलचियों को ही सफल होते देखा-समझा था तो वो असली कैसेट/cd में से अपने पसंदीदा गीतों/फिल्मो को चुन-चुनकर भरने-भरवाने, रिकॉर्डिंग/downloading/ करने-करवाने वालों को ही अपनी अज्ञानता और मुर्खता के चलते एक सफल धंधा समझते थे। तो इन तात्कालीन bureau चीफ को ये विशवास ही नहीं था की ईमानदारी की राह पर चलने वाली दूकान भी भ्रष्ट भारतीयों की भ्रष्टतम व्यवस्था और सरकार के होते हुए भी चल सकती हैं। ये एक ऐसा विशाल प्रश्न, धारणा या यूँ कहें की संदेहग्रस्त वाचाल बुद्धि की मूढ़ता थी जो इन पत्रकार महोदय से सेल्स गर्ल से ये पूछने की भूल करवा बैठी की : "मेडम ! ये दूकान चलती भी है या नहीं?"
मेडम की जिंव्हा में भी उस दिन जैसे परमात्मा रूपी सरस्वती देवी शास्वत थी जो सहसा उनके मुख से ये कह गयी : "आप होते कौन है हमसे ये पूछनवाले? और कर क्या लेंगे आप ये जानकार भी? आप तो बस इतना जान लीजिये की प्रभु ने कभी हमें आप जैसे निकृष्ट लोगों से भीक नहीं मंगवाई है। आपसे हम कभी कुछ मांगने आये क्या?"
इतना सुनते ही पत्रकार महोदय के तो जैसे होश ही उड़ गए। भाव-भंगिमाएं क्रोधित हो उठी और आत्मा शर्मसार हो दूकान से तुरंत कूच कर गई।
बाद में इन ब्यूरो चीफ पत्रकार ने अपने बहुत सारे नुमाईंदे, संवाददाता, चेले-चकोले, आदि-आदि नकली के ग्राहक बनाकर इस दूकान की हकीकत जान्ने के लिए भेजे पर साँच को आँच कहाँ और पनिहारन को साज़ कहाँ?
बहुत सारी शर्मनाक चालें चली फिर इन साहब के व्यथित अहंकारी मन ने पर सत्य को परेशान किया जा सकता है पर पराजित नहीं किया जा सकता। कदापि नहीं - चाहे आप कितने ही बड़े दैनिक भास्करी विजयी शंकर क्यों ना हो।
सत्य मेव जयते।
शायद अब भी यही हाल है इन तथाकथित पंडित जी का क्योंकि अब भी स्वयं की कोई रचना ये आज भी नहीं कर पाते हैं। बस कभी ओशो तो कभी अवधेशानंद गिरी महाराज या कभी कोई पतंजलि के सूत्र या फिर किसी विवेकानंद की असल टिप्पणियों के आसपास अपने नकली संसार की रचना करते रहते हैं। इतने वर्षों पश्चात भी ये महोदय वहीँ के वहीँ वाचं, मुखं, पदम् स्तंभित ही होकर रह गए हैं। जिंव्हा का किलय हो चूका है और कलुषण भी। बुद्धि का तो जैसे विनाश ही हो चूका है।
अल्लाह ही मालिक है, रहमान है, मेहरबान है, करतार है, दयानिधान है, कृपालु है ऐसे मुर्खा दे मुखादेपतियों का।
रहम करो या वारिस
करम करो या वारिस
के ये वक़्त-ए-रहम है, ये वक़्त-ए-करम है मेरे दाता
आमीन, आमीन , सुम-आमीन।
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