Easter के पावन पर्व पर Tony Joseph जी सरकार की करुणा को अगर स्वार्थ-सिद्धि का योग समझते हैं तो जरुर समझें।
हम ६६ प्रतिशत गरीबी और भूखमरी से पीड़ित लोग तो इसे सरकार की एक अदना सी कोशिश, एक उपकार, ईमान वालों का रहमोकरम मानते हैं।
देखना केवल ये है की इस बार भी हर बार की तरह उनकी ये बख्शीश हम तक पहुँच पाती है या बीच में ही खा जायेंगे इन नेमतों को ये बेईमान बिचोलिये इस बार भी।
बीता कर देखिये कभी साल के केवल ६६ दिन हमारी तरह तो जान लेंगे आप भी की कैसे जी रहे हैं हम सदियों से।
हमारे कर्मो को तो बाकी के ३४ प्रतिशत रईस, नामचीन और प्रभावशाली लोग सामाजिक झूठन समझते हैं। मोल आंका जाता है हमारी मेहनत का कोड़ियों के दाम और हमारा आका बनकर बख्शा जाता है हमें बस अपने नसीब को कोसते रहने का काम।
माना की दान गरीबी को ख़त्म नहीं कर सकता पर पुरजोर और पुरनम मदद तो करता ही है हमारे विश्वास, हमारी आस्था और हमारी आशा को जागृत रखने में।
माना की हम भी आप लोगों पर बोझ बनकर या निर्भर होकर जीना नहीं चाहते एक पल भी पर आप लोगों का प्रभुत्व इतना विस्तृत, इतना महत्वकांक्षी है के इससे युद्ध स्तर पर ही निपटा-सुलझा जा सकता है, शायद।
जीने की राह दिखाने वाले पंडित जी की ही तरह आप भी इस्वरात्व को व्यक्तित्व समझ कर पकड़ना चाह रहें हैं, शायद।
पकड़ना नहीं है बस एकात्म होना है जनाब-ए-आली। दृष्टा हो कर - सहजता से, सहिष्णुता से, सत्यनिष्ठता, कर्तव्यपरायणता और प्रेमपूर्णता के मार्ग पर खुदा की रोशनाई में दिन-रात चलकर।
" व्यक्ति को नहीं बात को पकड़
बातों में निहित भावनाओं को जकड
अब दूर खड़ा हो देख इन भावनाओं को दृष्टा बन
जा !
अब तू इस मायावी जगत से पूर्णतः आज़ाद है "
ज्यादा दूर नहीं जाना है। ठीक आपकी 'राजनितिक अभिव्यक्ति' के नीचे 'जीवन दर्शन' कॉलम में छपी ईसा मसीह जी के जीवन काल में घटी एक घटना को ही पढ़ लीजिये तो समझ की यात्रा से बोध की यात्रा में प्रवेश हो जायेगा। ठीक है, ठीक है ....घटना को एक काल्पनिक जगत की कहानी मानकर ही पढ़ लीजिये या इसके लिए भी घुस देनी होगी हमें..??
"मैंने" तो बनाया था
आदम-हव्वा को ठीक "मेरी" ही तरह
"मेरे" लाख मना करने पर भी
खा ही लिया उन्होंने एक दिन इल्म का सेब
रच लिया फिर उन्होंने ही
ये मायावी मानवीय संसार तो "मेरी" खता क्या है
काम-क्रोध-भय-मोह-माया-अहंकार में लिप्त हो
दूषित हो मारा-मारा फिरता है अब उनका मन
तन-मन हो जब धन को समर्पित
तो तुम ही कहो की फ़लसफ़ा क्या है
अपने कर्मो से ही रचते हैं वे अपना नसीब
फल भोगते हैं वे अपने ही कर्मो का
और
कहते हैं "मुझ" बदनसीब को अपना ज़हेनसीब
देते हैं जब वो "मुझे" दोष सिलसिलेवार ढंग से
तो कहता हूँ "मैं"
की मिलूँगा "मैं" तुम्हे क़यामत के दिन
फिर बताऊंगा तुम्हे "मैं"
की असल में अज़ल से
"मेरी" रज़ा क्या है
Man is bad case....isn't it?
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