हवाओं को खोते हमने देखा नहीं
वक़्त को ठहरते हमने देखा नहीं
मौसमों को मरते भी कभी देखा नहीं
हाँ मगर...,
इंसानों को रोते-झींकते-अटकते जरुर देखा है
शायद..,
हमारी नज़रें ही बेअदब और गुस्ताख हैं
ये वो देख लेती हैं जो नाकाबिले गौर है
और मरहूम रह जातीं हैं
वो देखने से जो करिश्मा-ए-बा-कमाल है...
ना जी ना...
इस ग़लतफहमी में उम्र ना गुजार दीजियेगा
की कोई खुदा आएगा कहीं से
बक्शने को तुम्हें ये नूर-ए-नज़र
अरे मियाँ...,
ये नियामत तो इंसान को हासिल है ही
बस,
पाक-ओ-साफ़ रखनी होती है ये कुदरत की बशर...
उतार फेंकिये ये अक्ल के चश्मे
डूब जाइये इश्क के समंदर में
ख़त्म कर लीजिये अपनी पहचान
फिर देखिये
दिखाई देगा तुम्हें वो
जो है तुम्हारे अन्दर में...
तब तक..,
हो रहिये बिस्मिल
हो जाइए कामिल
करिए तह-ए-दिल से इस्तकबाल ज़िन्दगी का
चाहे आसानी हो या हो मुश्किल...
हर सूरत है उसी की सूरत
हर मूरत है उसी की मूरत
और...,
हर सीरत में होता है वही
चाहे ये फितरत हो या वो फितरत...
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