Thursday, July 21, 2011

बेतुकी पत्रकारिता का दौर

दो कौड़ी का है तुम्हारा ये विश्वास
शब्द में ही निहित है देखो विश्व की आस
टूट जाता एक ज़रा हवा के झोंके से
रह जाती है केवल दिलों में फांस

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बेतुकी पत्रकारिता का दौर



घटनाओं का एकतरफा चित्रण मानवीय त्रासदियों को और भी गहरा कर जाता है I मानव इससे अतुलनीय संताप में डूब जाता है I


लगता है जैसे व्यावसायिक और वैयक्तिक हित पूरी मानवता पर इस तरह छा गए है की सात्विकता के पास
सिवाए आश्चर्य के इस तमाशे को देखने के और कोई चारा ही नहीं बचा है I पत्रकार और पत्रकारिता फिर अव्वल दिखने की इस होड़ से कैसे अछूते रह सकते हैं I लेकिन सवाल ये उठता है की ये पत्रकार क्या वाकई पूर्ण सत्य से नावाकिफ हैं या इन्होने जान-बूझकर एक लोक-लुभावन मुखोटा ओढ़ रखा है I अगर देश के स्थापित पत्रकार भी अपनी महती महत्वाकांक्षाओं के चलते आज सत्य का अधूरा चेहरा प्रस्तूत करने को बाध्य हैं तो देशवासी पिछलग्गू पत्रकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं I

मुझे ये बताइये जनाब की फिर ये सम्माननीय पत्रकार उन राजनीतिज्ञों से किस तरह अलग हुए जो लोक-मानस को लुभाने के लिए वही कहते हैं जो देश की जनता सुनना चाहती है I ये किस तरह की लीडरशिप है जो नेतृत्व करने के बजाए अनुसरण करती है जन-मानस की अवांछित भावनाओं का उनके वोट या नोट हासिल करने के लिए I जनता को तो फिर भी एक बार माफ़ किया जा सकता है उनकी स्वार्थी सोच के लिए पर इन प्रबुद्ध पत्रकारों का क्या कीजिये जो अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए अर्ध-सत्य परोस रहें हैं I

अगर से ये माननीय पत्रकार एक पल के लिए भी ये मानने को राजी हो जाएँ की इनका सत्य का ज्ञान अधुरा है तो फिर तो निश्चित रूप से कुछ बातचीत हो सकती है पर क्या ये सर्वज्ञानी इस तथ्य को जानने के लिए उत्सुक होंगे की सत्य हद, अनहद और हद-अनहद के बीच स्थित होता है ?

चलिए हम आशा का सहारा ले आगे बढ़ते हैं ये सोचकर की शायद पुरे हिन्दुस्तान में कोई १० प्रतिशत तो ऐसे पत्रकार होंगे ही जो पत्रकारिता के सही माईने पर सोच-विचार कर उसे अपनी दैनिक जीवन में लगन से अपनाना चाहते हैं I

अब हाल ही में हुए मुंबई बम ब्लास्ट और उससे जुडी पत्रकारिता की ही बानगी ले लीजिये I

हर पत्रकार, चाहे वो किसी भी समाचार-पत्र या न्यूज़ चैनल से सरोकार रखे हुए हो, सभी ने एक ही नारा बुलंद किया की "सरकार निकम्मी है, नाकारा है, लाचार है" I किसी भी समझदार पत्रकार ने ये कहने की ज़हमत नहीं उठाई की हम सारे के सारे भारतीय सामूहिक रूप से देश के इस हाल के लिए जिम्मेदार हैं I किसी ने भी देश की अनाप-शनाप जनसँख्या और उससे जुड़े तंत्र के लाचार मूकदर्शक बने रहने की मज़बूरी का पक्ष दिखाना जैसे उचित नहीं समझा I

आप ही बताइए क्या कोई भी माई का लाल छाती ठोंक कर इस १२१ करोड़ की आबादी वाले मुल्क की पल-पल, हर पल, हफ्ते के सात दिन या महीने के तीस दिन और साल के ३६५ दिन की समुचित सुरक्षा का जिम्मा अपने सर पर लेने का दावा कर सकता है? शायद ये पत्रकार बंधू ऐसा कर सकते हैं जो की इनके लेख पढ़ कर और इनकी सनसनी बातें tv पर देख-सुनकर महसूस होता है की हाँ....शायद ये पत्रकार ही अब हमारे देश के कर्णधार और माझी हो सकते हैं I तो मुझे लगता है की हमें तुरंत से पेश्तर देश की बागडोर इनके हाथों में सौंप देना चाहिए I शर्त सिर्फ इतनी सी हो की इनके देश के भगवान् होने के दौर में अगर एक भी बम ब्लास्ट हुआ तो इन्हें ना सिर्फ निकम्मा और नकारा करार दिया जाएगा वरन इनके हाथों से वो कलम भी छीन ली जाएगी जिसकी ताक़त के दम पर ये इस कदर इतराते फिरते हैं I

बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है हुजुर..., आप सब जानते हैं की आए दिन होने वाले घोटालों में मीडिया के दिग्गज किस तरह शुमार होते हैं I आप सब ये भी जानते हैं की खबर बनाने और बिगाड़ने की आड़ में ये पत्रकार किस तरह blackmailing के हथकंडे अपना कर पैसा और रुतबा हासिल करते हैं I अगर नहीं जानते हैं तो निकट भविष्य में कभी ना कभी जान ही जाएँगे I स्थानीय पत्रकारों की तो हालत और भी बुरी है I ये लोग तो छोटी सी छोटी खबर छापने की एवज में कुछ नहीं तो आपसे शीश झुका कर नमन के तो हक़दार खुद को मान ही बैठते हैं I हालत ये है की beaureau chief सब कुछ जानते हुए भी अनदेखी कर देता है I

तो फिर तर्क ये कहता है की ये पत्रकार होते कौन हैं समाज की तरफ से ठेकेदारी करने वाले अगर से ये अपना घर-दफ्तर ही ठीक से नहीं चला सकते? क्या हक है इन्हें किसी राहुल गाँधी, चिदंबरम या पृथ्वीराज चव्हाण की बयानबाजी पर सवाल उठाने का?

आप ख़ुफ़िया तंत्र को दोषी ठहराना चाहते हैं ये कह कर की वो ये बम ब्लास्ट किसकी कारगुजारी ये तक नहीं जानता? हुजुर क्या आप जानते हैं की आप के मकान से दस मकान दूर रहने वाले पडोसी के नौकर की बेटी के पति का नाम क्या है?

झवेरी बाज़ार, ओपेरा हाउस और दादर जैसी जगह पर जहाँ शाम ५ से ७ और सुबह ९ से ११ के बीच हर रोज इस कदर भीड़ पड़ती है जैसे कोई मेला लगा हो - छोटा-मोटा मेला नहीं कुम्भ का मेला I हर कोई घर पहुँचने की जल्दी में होता है I इतनी जल्दी में की आपको चलना नहीं पड़ता - आप धकियाए जाते हैं जनाब I ऐसी जगह पर ख़ुफ़िया तंत्र तो छोडिये जनाब हर तंत्र फ़ैल हो जाता है I शुक्र मनाइए के ऐसे बम ब्लास्ट ऐसे जगहों पर कमोबेश रोज नहीं होते - शायद इन आतंकवादियों में अब भी थोड़ा ज़मीर बाकी है I

गृह मंत्री का आप ये कहकर मखौल उडाना चाहते हैं की उन्हें आतंकवाद के बारे में कुछ पता नहीं I क्या आप आपके ऑफिस या घर में हो रही हर गतिविधि से वाकिफ रहते हैं? क्यूँ फिर आपके ऑफिस में गबन हो जाता है और क्यूँ आपके घर से एक कीमती घड़ी सहसा गायब हो जाती है? नहीं ऐसे सवाल कर आप गृह-मंत्री का नहीं अपना मजाक बना रहें हैं या हो सकता है की दर्शक-दिर्घा की वाह-वाही लूटने के लिए आपको ये बेवकूफी करना भी मंजूर है I

राहुल गाँधी को आप आंकड़ों में उलझाना चाहते हैं जबकी आप ये बखूबी समझते हैं की आपकी सचेत नज़रों और आपके cctv की वजह से आपके ऑफिस और घर में होने वाले ९९ प्रतिशत अपराध घटित होने से वंचित हो जाते हैं वर्ना तो मुम्बैय्या जबान में आपकी वाट लग जाए इ

प्रधानमन्त्री महोदय की सज्जनता को भी आप बख्शना नहीं चाहते हैं I एक सज्जन और सच्चा पुरुष सचमुच भोंचक्का ही रह जाता है अपने आस-पास फैले इस कदर झूठ और मक्कारी को देखकर, पर रहने दीजिये, आप उनके आश्चर्य को कभी ना समझ सकेंगे I आप खुद एक्सपर्ट जो ठहरे तमाम चालाकियों मे जिन्हें आप बड़ी कुशलता से व्यवाहरिकता का जामा पहना देते हैं I

आप, जो मेरी बातों को बकवास समझ-कह रहें हैं हुजुर, क्या आप खुद इस बकवास से परे हैं?

आप जो सरकार को अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए सहानुभूति और करूणा का पाठ पढ़ा रहें हैं, क्या आप खुद सरकार के दायित्वों और उसके कार्यपालन को सहानुभूति से देख पा रहें हैं हुजुर?

तंग ही होना है तो पहले अपने-आप से और अपने इस अहंकारी मन से होइए श्रीमान I ये मन जो हर वक़्त दूसरों पर दोष मढने में लगा रहता है I

प्रासंगिक कीजिये अपने दिल को I

होश में आइये महाशय - होश में I

देखिये और दिखाइए वो जो है - परिकल्पनाएं बहुत देख और दिखा चुके आप I

वक़्त आ गया है कटु यथार्थ से रू-ब-रू होने का I

आमीन



आपका पाठक

मनीष बढ़कस

manish badkas

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