थोथे का पोथा:
मालूम है भाई ...मालूम है मुझे भी की इस ट्विटर युग में हमारा ये पोथी कौन पढ़ेगा? खासतौर से तब जब हम कोई नामचीन, नामी-गिरामी, सफलतम, वरिष्ठ लेखक नहीं अपितु फकत एक नाचीज थोथे हैं। लक्ष्मी जी के वाहन ही सही पर हैं तो हम उल्लू ही। पर क्या करें की बचपन से ही सुना है हमने की 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ।" तो सोचा की क्यूँ ना आज पंडितों की सवा में हम भी ये पोथा पेश करें। शायद हमारे भाग्य का भी उदय हो जाए। फिर कृष्णा भी तो कह गए की 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते', सो ये हमारा मूलभूत अधिकार भी है की हम वो करें जो हम करना चाहते बिना किसी भी मनवांछित फल की अपेक्षा किये।
सो हम हाजिर हैं आपको फिर एक बार बोर करने को ...
तो फ़क़ीर दुआ क्या करता है?
बयान करने के काबिल कोई कहानी दे
मेरे खुद, मेरे अलफ़ाज़ को भी मानी दे
किसी का दिल जो दुखाये मेरी जुबां यारब
तो मुझ फकीर को तौफीके बेजुबानी दे
सुनो महाराज ... जगत के वाली
मस्ती बरस रही है तेरी हर हर निगाह से
सागर पिला रहा है वो आँखों की राह से
अर्शे बरी से आकर सहारा दिया मुझे
मैं तो भटक चूका था हकीकत की राह से
सुनो महाराजा ...जगत के वाली
हर गलत मोड़ पर टोका है किसी ने मुझको
एक आवाज़ जब से तेरी मेरे साथ हुई
सुनो महाराजा ...जगत के वाली
अब विभीषण रुपी हमारेहनुमान सुबह-शाम थोड़े समय रटने वाले पंडितजी विजयशंकर मेहता से ये रावण रूपी दीवाना वारसी कुछ कहना चाहता है।हाँ मैं मूर्ख हूँ, हाँ मैं वही रावण हूँ, हाँ मैं ही उस बुराई का प्रतीक हूँ जो सालों साल आप अच्छे से भरे लोगों द्वारा साल दर साल, हर साल सदियों से जलाए जाने के बाद भी हर साल पुनः खड़ा हो जाता हूँ और वो भी एक फीट कद में और ऊंचा होकर। छाहे कितने ही दसहरा मैदानों में आप मुझे जला लें, मैं मरने नहीं वाला क्योंकि रामजी के हाथों मरकर में अमर हो चूका हूँ, मोक्ष प्राप्त कर चूका हूँ। आप अच्छे लोग मिलकर ७ अरब भी हो जाएँ संख्या में तो मुझे मार ना सकेंगे क्योंकि मैंने अपनेआप को आपकी अन्दर स्थापित कर लिया है। मैं जिंदा रहता हूँ आपकी 'दैनिक भास्करी' दिनचर्या में। मैं घर कर गया हूँ आप सबके अन्दर। छ गया हूँ मैं आपके दिलों-दिमाग में पूर्णतः। मैं ही साईं राम हूँ, मैं ही रावण हूँ और हाँ विभीषण भी मैं ही। हाँ मैं वो सबकुछ हूँ जो आपके भीतर बस्ता है। अब ये आपके ऊपर है, आपकी मनोदशा पर है, आपकी मनोकामना पर है की आप किसे जागृत करते हैं, किसकी आव्वाज़ दिन-रात सुनते हैं, किसका अनुसरण करते हैं, किसे ज्यादा तवज्जो देते हैं,किसका नाम जपते हैं अपने कर्म-कांडों में, किसे अपनाते हैं पूरी तरह। जी हाँ, फैसला पूर्णतः आपके आपके हाथों में ही है। और क्यूँ ना हो? की ये ज़िन्दगी आपकी है और आप ही अपने सुप्रीम जज है।
जानता हूँ की आप लोगों के पास न तो वक़्त है और ना ही कोई आरज़ू है मुझ जैसे 'मूर्ख' की बाते पढने-सुनने-समझने की पर फिर भी मैं अपना कर्म करना क्यूँकर बेवजह छोड़ दूँ? जब आप लोग अपना रास्ता नहीं छोड़ते तो मुझसे क्यूँकर उम्मीद रखते हो की मैं अपने रहबर "पंडित बेदार शाह वारसी" के दिखाए मार्ग को छोड़ दूँ? पता है मुझे की आप लोग सफलता के नुस्खे नहीं सफलतम के उवाच सुनना, पढना पसंद करते हो पर फिर भी मुझे आपको आत्मा-मंथन के लिए मजबूर से मुझे कोई नहीं रोक सकता है। ये हक है मेरा और आपका भी, जो हमें खुदा से मिला है।
पंडितजी आप पहले स्वयं गलत आदतों को छोड़ कर दिखाएँ फिर हमें जीने की राह दिखाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा। आप समझते हैं के अच्छाई बुराई की मदद कर रही है पर ये भी तो बताइए की यहाँ अच्छा कौन और बुरा कौन? क्या खुद को अच्छा मान बैठा पंडित ज्यादा बुरा नहीं उस आदम से जो मानता है की वो गुनाहगार है, बुरा है और सदा प्रयासरत रहता है माफ़ी मांगते हुए अपने गुनाहों के प्रायश्चित के लिए? कहीं ऐसा तो नहीं की यहाँ बुराई अच्छाई की मदद कर रही है उसका सूक्ष्म अहंकारी मन के नकली मुखौटे को उतार फेकने में? ज्यादा नहीं फकत आधा इंच ही अपनी निगाहें फेरे 'जीवन दर्शन' में बैठे संत फ्रांसिस के कहानी पर और आप जान जायेंगे की मुर्ख कौन और मूर्खाधिपति कौन? राह के शूल भी फूल बन जायेंगे गर आप ये कबूल कर लें की आपमें बुद्धि तो है पर विवेकशील बोध नहीं। दिल से इस तथ्य को स्वीकार करते ही मौला इतना परोपकारी है, दयानिधान है, रहमदिल है की आपको भी नवाज़ा जाएगा पाक-साफ़ नीयत की राह पर दीन-ओ-ईमान के साथ रूहानी रोशनाई के नूर से। जब मुझ जैसे रावण को वो बक्श सकता है तो आप भले ही 'घर के भेदी लंका दहाने वाले विभीषण ही क्यूँ ना सही' - वो आपको भी जरूर नवाजेगा। खेल बस आपकी नीयत का है।
सबूत के रूप में देखिये की आपके बेवकूफ मुरीद आपके होते हुए क्या कर रहे है:
रविवार को सुबह 10 बजे देखना मत भूलिए ..पेज पर सप्ताह का सबसे ज्यादा पसंद किया गया व्यंगचित्र .. " CAC कार्टून ऑफ़ द वीक " ..
मनीष जी यह लालकृष्ण को क्या सभी को समझ लेना चाहिये कि धर्म इन्सान की आत्मा मे है दिखावे मे नही और एक अच्छी आत्मा सिर्फ और सिर्फ अच्छे कर्मो से हीजानीजाती है ।
मुल्ला-यम माया फटी जैसे कमिनो ने खुद को मुस्लिम और पिछडे धर्मो का ठेकेदारो बनकर ही हिन्दुओ को भी यह समझने पर मजबुर किया की हमारा भी कोइ धर्म है ईन्सानियत और कर्म से भी बढ कर ।पर वास्तविकता मे आमजन तो सिर्फ विकास ही चाहते है जिसकी एक बहूत बडी कीमत !
कांग्रेस वसूल ही रही है भ्रष्टाचार कर कर कर के ।
जय हिन्द ।
मतलब ये के कोई दुष्ट आत्मा का शिकार हो जाए या विकास के नाम पर स्वार्थ सिद्धिवश पदलोलुप होकर दुष्कृत्य करने के लिए लालायित हो उठे तो हमें भी उसे सबक सीखाने के लिए अपना प्रेमपूर्ण, सत्यानिष्ठापूर्ण, कर्तव्यपरायण, कर्मयोग, दीं-ओ-ईमान का मार्ग छोड़कर वो ही मार्ग अपना लेना चाहिए जिसके हम धार्मिक विरोधी बन रहे हैं?
यही अमानवीय सोच तो मुजाहिद्दीन या कट्टरवादी संगठनो की है। तो फिर कौन गलत औए क्या सही? कृपया मुझ उल्लू को ये समझाने की या बताने की कृपा करे महाराज। आप बड़े ही कृपालु और हैं दयालु भी।
CARE SHOULD BE TAKEN IN FIGHTING A MONSTER LEST YOU BECOME A MONSTER.
- NIETZSCHE
These are also the basic lines used by the maker of अब तक छप्पन - a hindi film based on delusional concept of ENCOUNTER KILLING.
इस तरह से तो पूरी काएनात अंधी हो जायेगी।
- महात्मा गांधी
रही बात सभी को ये बात की 'धर्म इंसान की आत्मा में ही है दिखावे के लिए नहीं और एक अच्छी आत्मा सिर्फ और सिर्फ अच्छे कर्मो से ही जानी जाती है' के आपके अद्भूत वक्तव्य का तो देखिये ना की आप इस बात को भली-भाँती जान-समझ लेने के पश्चात भी आगे कुछ ऐसा लिख बैठे जो आपकी ही समझ को दूषित कर गया। ध्यानस्थ अवस्था में ना होने से ये अक्सर होता है की काम क्रोध बन जाता है, करुणा द्वेष और सुशीलता अविवेक। क्या ख़याल है?
चोरों का भीतरी जमीर तो बहुत जल्द जाग उठता है गाँधी जी
पर
स्वयं का आत्म-मंथन करने के बजाये स्वयंभू पंडित बने बैठे मन का कौन है मनीषी?
ये बनिया बुद्धि तो ध्यानस्थ भी होना चाहते है स्वार्थ सिद्धि के विकास के लिए ही
जगत कल्याण की भावना इनमे कैसे जागृत होगी तुम ही बताओ परम हितेषी
चलो कमस्कम इतना तो माना मोदी की गलती सरकार से हुई थी
जनता ने विकास की छह में माफ़ कर बनाये राखी उनकी सरकार १ वर्षो तक गुजरात में
अब ये भी बता दीजिये महामुहिम की इस बार कौनसा गुनाह करेंगे वो बन्ने को प्रधानमन्त्री
कितनो का बेडा पार करेगी इस बार उनकी सरकार
फिर कौनसा अच्छा काम कर के बनाये रखेगी अपनी साख विघ्न-संतोषी
क्या इस तरह ही ओढ़े रखते हैं ये मुखोटे आत्मा-संतोषी?
तुमने तो शायद सबकुछ पाकर प्रीत है पाई
मैंने तो मगर पि पाकर ही सबकुछ पा लिया माई
सबकुछ पाकर सबकुछ बख्शने वाले की प्रीत का राज़ खुला तुमपर
हमने मगर इतनी पि पिया की नज़रों से की अब होत है जग-हँसाई
शायद इसीलिए कह गईं मीरा बाई
की;
जो मैं ऐसा जानती
प्रीत किये दुःख होए
नगर ढिंढोरा पीटती
प्रीत करियो न कोए
क्योंकि ऐसा जान लेने के बाद भी मीरा बाई ने कभी ये नगर ढिंढोरा पिटवाया नहीं तो मुझ जैसे दीवाने/दीवानियों के लिए अब भी प्रेम-भक्ति मार्ग अब भी प्रशस्त है। शायद ये राज़ स्वयं अनुभूत करने हेतु की आखिर ऐसा कौनसा दुःख है प्रीत में जो मीरा बाई जैसे प्रेम-दीवानी को ये कहने को विवश तो कर गया की "प्रीत करियो ना कोए" पर साकार रूप में कभी उस प्रेममयी से नगर ढिंढोरा नहीं पिटवा पाया?
अभी और यहाँ:
जो अभी है यहाँ
वही यहाँ है अभी
यही अभी है वहाँ
और वही अभी है जहाँ
इबादत अली है, मोहब्बत वली है
अली वली पे कुर्बान है वहाँ
मत पूछ के अली कौन है, क्या है, कैसा है
के बातें फकत नज़रों से होती है वहाँ
जानना चाहता है अगर की वली क्या करेगा
क्या वही जो नबी कहेगा?
तो जान ले फकत इतना की वही होगा जो खुद करेगा वहाँ
के नबी ने देखा है आलम सरकार-ए-दो-आलम का
सरकार ही सरकार-ए-आलम भी और सरकार-ए-दो-आलम है वहाँ
बस इतना जान लेना तुम
की;
अली ही वली है, नबी है और वही है खुदा भी वहाँ
हाँ, ठीक वैसे ही जैसे
अभी - यहाँ है वहाँ
और यहाँ - अभी है वहाँ
शायद इसी अनुभूति के चलते कहत है कबीर वहाँ
की;
जात ना पूछो साधू की
पूछ लीजिये ध्यान
मोल करो तलवार का
पड़ी रहन दो म्यान
साहिब मेरा एक है
दूजो ना कोए
जो साहिब दूजा कहे
वो दूजो कुल का होए
जब मैं था, हरी नाही
अब हरी है, मैं नाही
रूमी भी मदद करते हैं हम नादानों की ये कहकर
की;
पता है ...
यहाँ से दूर ..बहुत दूर
सही और गलत के पार
एक मैदान है
मैं वहाँ मिलूँगा तुझे !!
अभी और यहाँ में
पल-पल, पल-क्षीण ध्यानस्थ दृष्टा बनकर रहना सीख
खुदाया, एक पल फिर ऐसा जरुर आएगा
जब " मैं " और " तुम " का तत्व भी खो जाएगा वहाँ
" वो " ही " वो " फिर होगा वहाँ
नवाज़ा जाएगा उस दिन तुझे भी
तेरी पाक-साफ़ नीयत को
नेकी की राह पर दीन-ओ-ईमान के साथ चलता देख
आमीन
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