प्रिय दैनिक भास्करियौन को फूहड़ कहूँ, मूढ़ कहूँ, मन-मस्तिष्क ज्वार से पीड़ित कहूँ या यौन रोगी कहूँ ??
आमीन
Man is bad case.... isn't it?
'यौन सम्बन्ध' छापिये जनाब
'यौन सम्बन्ध'
ना की 'सम्बन्ध'
वर्ना तो
हर एक सम्बन्ध की उम्र का
रखना पढ़ेगा कानूनी हिसाब
फिर ये भी
यकीनन यकीन हो चला है हमें
की
'शादी' को 'यौन सम्बन्ध' बनाने का
सामाजिक रूप से
एकमात्र कानूनी जरिया
मानते हो आप !!
फूहड़ता ये की खुद का जना हुआ असंभव के विरुद्ध काल्पनिक विरोध को असरकारी होते ना देख बिलबिला उठे हैं ये कागजी दैनिक भास्करी। विरोध काल्पनिक क्यों है ये जानने के लिए मेरे फेसबुक, ट्विटर अकाउंट या manisbadkase.blogspot.com पर जाकर पढ़िए इस "सम्बन्ध" में लिखा गया श्रीमान कल्पेश याग्निक के नाम एक खुला पत्र।
मूढ़ता ये की आज के युग की ज़मीनी हक़ीक़तों को रचने का पूर्णतः रसूखदार, जिम्मेदार, जवाबदार ये सिर्फ और सिर्फ मंत्रियों को, मंत्रालयों को या सरकार को मानते हैं। खुले आम बेवकूफी से भरा ये इलज़ाम लगाते हैं ये सरकार पर की " यौन सम्बन्ध की उम्र घटाने से ज्यादा जरुरी है इन्हें सही तरीके से जीने का अधिकार देना। लेकिन इस ओर सरकार का ध्यान ही नहीं है..." अधिकार मिलने से ही गर विवेक का अर्जन हो सकता तो हजारों अधिकारों के चलते इन मूढमति दैनिक भास्करियों को न जाने कब का ये वरदान प्राप्त हो गया होता। विज्ञापनों के बल पर नहीं अपितु स्वयं को गँवा देने पर ही ये रोशनाई के नूर की दौलत बक्शी जाती है हर किसी को।
इन मंदबुद्धि दैनिक भास्क्रियों को एक परोपकारी सुझाव देता हूँ। बजाये दूसरों पर मनगढ़ंत आरोप लगाने के परंपरागत रूप से ज्ञानी-ध्यानी से ये दैनिक भास्करी लोग क्यों नहीं खुद की ही एक 'दैनिक भास्करी सरकार' की रचना कर लेते? चुनाव पास ही खड़े हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।
या फिर ऐसा भी कर सकते हैं ये विनाश काले विपरीत बुद्धित्व वाले बुद्धू लोग की इस जगत के परमपिता परमेश्वर, परमात्मा, ईश्वर, भगवानों, प्रभुओं द्वारा कल्पित-रचित-पालनक्रित-विधवंसित पर भी बेध्यानी या लापरवाह होने का दोष लगाकर लगान वसूल करना शुरू कर दें।
मन-मस्तिष्क ज्वार से पीड़ित ऐसे की भास्कर श्रुंखला / भाग ३ के अंतर्गत ये लोग न जाने किस से एक सवाल पूछते हैं की "शादी की उम्र १८ तो 'संबंधो' की १६ क्यों हो?"
जवाब हम देंगे तो प्रीतिश नंदियों को हजम नहीं होगा क्योंकि जवाब सुझाने का, बकवास करने का, बकबक करने का, शोरगुल मचाने का, तर्क-कुतर्क छपवाने का हक तो वर्षों से सिर्फ इन जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का है - हम जैसे नौसिखियों की तो कतई कोई जरुरत भी नहीं है। जरुरत है तो सिर्फ इनके मुखारबिंद से निकले या इनके कर-कमलों द्वारा सजाये-धजाये गए ढकोसलेबाज लेखों की - बाकी सब गैरजरूरी है, दकियानूसी है जी।
चूँकि इनके पास साधन हैं, दैनिक भास्करी कूड़ेदान हैं अपने दूषित विचारों का, सारगर्भित अविचारों का कूड़ा कचरा हमारे मन-आँगन में बेख़ौफ़ फेकने का इसलिए अपने विचार अपने तक रखने की या निर्विचार होकर जीने की राह दिखा रहे हैं इनके कृपानिधान पंडित विजयशंकर मेहता जी।
मज़े देखिये की आधा इंच पास ही छपा जीवन दर्शन पढ़कर अपनी भूलों का एहसास करने तक का नियंत्रण नहीं है जिन्हें वे हमें नियंत्रण में रहकर पुरुषार्थ करने की सीख दे रहे हैं।
वाह भाई वाह, ये भी क्या गज़ब दोमुही तमाशा रच रखा है इन एक ही थैली के चाटते-बट्टों ने की एक तरफ तो इनका राष्ट्रीय सम्पादक 'हमसे क्यों नहीं पुछा - हमें क्यों नहीं बहस में निमंत्रित किया - हमारी राय क्यों नहीं ली - सांसदों को तवज्जो क्यों नहीं दी - मामला हमारे बच्चों का है कहकर पुरे देश को उकसाने की चाल चलता है और दूसरी तरफ जब हम फेसबुक, ट्विटर, इ-मेल या किसी और माध्यम से अपनी बात, अपने विचार इन तक पहुँचाना चाहें तो हम बेबेल का टावर।
वाह भाई वाह !! इनका खून खून और हमारा खून पानी !!
ये भी जान लीजिये की इनमे से एक के पास भी आपको जवाब देने का ना तो समय होता है ना ही ये कोई मानवीय जरुरत समझते हैं इस बात की कुछ नहीं तो कम से कम मानवीयता के नाते ही हमारे द्वारा उठाये गए मुद्दों का, प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश करें। जवाब इनके पास है ही नहीं तो देंगे क्या ख़ाक? और अगर हैं तो क्यों नहीं रोशन करते हमारे मनमंदिर का चिराग। भले ही आपको हमारे तर्क इन्हें कुतर्क लगते हो, भले ही हमारी बातें इन्हें खुराफातें लगती हो, भले ही हमारे विचार इन्हें बेतुके और हास्यास्पद लगते हों पर कुछ नहीं तो कम से कम जगत कल्याण के लिए ही सही - एक बार तो सिलसिलेवार जवाब देने की मानवता दिखा सकते हैं ये लोग। अगर ये लोग अभी शैतान नहीं हुए हैं या भगवान् नहीं हुए हैं अपितु हैं हम जैसे ही एक इंसान तो इंसानियत का धर्म निभाएं सत्यनिष्ठ होकर और हमारी मूढ़ता का, हमारे अहंकार का पर्दाफाश सरेआम करके।
है कोई माँ का लाल जो कबूल कर सकता है हमारे इस निमंत्रण को?
अब भी वक़्त है। सोच-समझ के जवाब दीजिये हमारे इन प्रश्नों के, इन विचाराधीन मुद्दों के। या फिर बंद कर दीजिये अपना ये दोमुहा व्यापार। बंद कर दीजिये अपने इ-मेल एड्रेस छपवाना -ब्लाक करवाना, इतराना।
जान लें ये लोग वर्ना ;
की नहीं बख्शा जाएगा इन्हें क़यामत से क़यामत तक
Man is bad case.... isn't it?
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