दुश्मन मरिहे ते ख़ुशी ना करिए
की...,
सजना भी एक दिन मरजाना...!!
जो पूर्णतः छपकर भी नहीं छपी
जो छिपकर भी नहीं छिपी...
छिपकली की दूम की तरह
कटकर भी वो नहीं कटी
तडफड़ा रही है वो अब भी - कहीं ना कहीं...
तुम जीतकर भी
हक़ीक़तन हार ही गए
तुम्हारे भरम सब ताड़ ही गए...
सरकार झुक कर जीत गई
और देवराज इन्द्र की तरह
तुम्हारी नसें तन ही गई...
काल्पनिक जगत के याग्निक तुम बन बैठे
भावनाओं की कल्पेषित रोटियाँ तुम सेंक बैठे
जलो अब अब बनकर दैनिक भास्करी टेके...
कई हक़ीक़तों के राज खुलना अभी बाकी है
कई 'रूपकिशोरों' का सूली लटकना अभी बाकी है
तुम्हारा पर्दाफाश अभी होना बाकी है...
जनता जनार्दन को उकसाने का अभी सिर्फ लाभ तुम्हे किया गया है ज़ाहिर
उन्हें बातिमन बरगलाने का जोश अब तुम्हे भी उकसायेगा क़ाफ़िर
गालिबन बहकते भटकते रहोगे तुम भी खाकर ज़ख्म-ए-नासिर
फना हुए हैं हम दिग्भ्रमित नहीं
तसव्वुर हुआ हमारा कभी सिमित नहीं
बक़ाओं की रौशनी में होता कोई मनमीत नहीं...
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