फुल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
जगमगाता था उषा सा कंटकों में वो सुमन,
स्पर्श से से उसके तरंगित था सुरभिवाही पवन,
ले कपूरी पंखुरियों फुल्ल मधुकृतु का सपन,
फुल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
प्रखर रवि का ताप, झंझा के असह्य झोंके कठीण,
कर ना पाए उस तरुण संघर्ष-कामी को मलीन,
किन्तु झाडी से अलग हो रह ना पाया एक दिन,
फुल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
जो अडिग रहता अड़ा तूफ़ान में, बरसात में,
टूट जाता वही तारा शरद की रात में,
मुक्त जीवन की प्रगति भी द्वन्द में, संघात में,
फुल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
कांटो से डरो न
आँधियों से भगो न
तूफानों में ही आत्मा का जन्म होता है
मैं तम्हे आश्वासन नहीं दे सकता की अडचनें नहीं होंगी
इतना ही दे सकता हूँ आश्वासन
की
तुम उन साड़ी अडचनों को झेल सकने में समर्थ हो
प्रत्येक व्यक्ति समर्थ है
जो भी जीवंत है, समर्थ है
और
झेल सकोगे तो निख्रोगे
और
झेल सकोगे तो कितने ही कांटे हों
फुल को खिलने से ना रोक पाएंगे।
'बिरहनी मंदिर दियना बार'
{ With due respect & gratitude...
i have taken the above poem from page 73 of December 2012 issue of YES OSHO magazine
its just a heartfelt sharing
Copy right totally belongs to Osho }
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