Friday, January 28, 2011

रहस्य - the mystery

रहस्य

वो तेरा भीड़ में यूँ यकायक मुझे नज़र आना,
वो तेरा मुझसे यूँ आँख चुराना,
वो मेरा तुझे एकटक निहारना,
वो तेरा सब के सामने यूँ हो जाना
जैसे कुछ ख़ास नहीं पनप रहा है हमारे बीच...

वो तेरा अदा से अपने नाजुक पाँव ज़मीन पर रखना,
वो तेरा आँखों ही आँखों में कुछ कह जाना,
फिर वो तेरा हक से मुझे अपना सामान उठाने को कहना,
हाय...दिल किया क्यों ना तुझे ही उठा लूँ मैं अपने हाथों के बीच...

वो तेरा मुस्कुरा कर, इतरा कर फिर चल देना,
वो मेरा लड़खड़ा जाना,
वो तुम्हारा पीछे मुड़ कर कुछ देख लेना,
जैसे एक तीर पार हो गया था दो दिलों के बीच...

वो तेरा घबराना,
वो मेरा इठलाना,
वो तेरा चाय-नाश्ते की फिकर लेना,
मन किया तुम्हें ही खा जाऊं रख सैंडविच के बीच...

फिर वो तेरा मुझसे अकेले में बेलौस लिपट जाना,
तेज धडकनों का एक-दुसरे से रह-रह कर टकरा जाना,
सुकून मिला जब बैठ गयीं तुम मेरी दो ज़ानो के बीच...

वो तेरा चुप लगा कर मुझे एकटक देखते जाना,
वो मेरे हाथों का मेरे ही काबू से बाहर हो जाना,
रुक सा गया था जैसे वक़्त हमारे बीच...

वो तेरा मेरी बेबाकियों को रोकना...
और फिर मेरे रुक जाने पर तेरा ही कसमसा जाना,
कुछ वायदे आ खड़े हुए थे हमारे बीच...

तेरी आँखों ने मुझसे तो सब्र रखने को कह दिया...
पर फिर खुद ही डूब गयीं आंसुओं में मुझे रोक कर,
कुछ था जो एक इंच की भी दूरी बर्दाश्त नहीं करना चाहता था हमारे बीच...

वो हमारा खुद से किये गए वायदे को निभाना,
ख़ुशी-ख़ुशी कुछ पल के लिए अलग हो जाना,
दिल को यकीन था की कोई नहीं बस प्यार-प्यार-प्यार है हमारे बीच...

चल दिए फिर सधे हुए क़दमों से हम अपनी मंज़िल की ओर...
ना कोई डर था, ना ही कोई जल्दबाजी,
एक अजीब सी तपश्चर्या चल रही थी जैसे दो दिलों के बीच...

वो तेरे हाथो में मैं ही था,
वो मेरी आँखों में बस तुम हीं थी,
दुनिया जैसे खो गई थी हमारी दुआओं के बीच...

बैठे रहे घंटो हम एक-दूजे के ध्यान में,
लिपटती रहीं कितनी ही देर दो आत्माएँ सुनसान में,
अब ना थी कोई दूरी हमारे बीच...

भजन चलता रहा......
पूजन होता रहा......

मन थकता ही नहीं था उस दिन उपासना में,
शरीर भी हो गया था जैसे साधना में लीन,
सारे रिश्ते-नाते जैसे भस्म हुए प्रेम-अग्नी के बीच...

घर वापस चले तो दो मन शांत थे,
शरीर मगर जशन मनाने की तैय्यारी कर रहे थे,
और क्यों ना मानते वो जशन इस विवाह का जो संपन्न हुआ था दो रूहों के बीच...

दुल्हन उजली पियु काला,
वाह! क्या  खूब जमा था रंग,
सात रंगों के सपने जैसे खेल रहे थे हमारे बीच...

वो तेरा हौले से मेरी बाहों में समा जाना...,
वो मेरा टूट के तेरा हो जाना...,
वो तेरा बल खाना...,
वो मेरा झूम जाना..,
वो तेरा शर्माना...,
वो मेरा तेरा हो जाना...,
वो तेरा...,
वो मेरा...,
नहीं - नहीं.......
कुछ ना रहा था दो अब हमारे बीच...
बस दो रूहें थी जो तन-मन से एक हुई जा रहीं थी...
और क्यों ना होतीं एक वो दीवानों की तरह
की
सदियों के फासले तय हुए थे उस दिन उनके बीच...



ये तेरा-मेरा जो रिश्ता है...

ये तेरा-मेरा जो रिश्ता है
ये कोई बंधन नहीं जो बंधा है कच्चे धागों से...
ये कोई मोहर नहीं जो लगायी हो समाज के ठेकेदारों ने...
ये कोई नाता नहीं जो चलता हो कागज़ी उसूलों पे...
ना तो इस रिश्ते की कोई वजह है
और ना ही इस रिश्ते का कोई तुक है
ना इसकी कोई हद है
ना आगाज़, ना अंजाम, ना ही कोई मंज़िल...
बस एक परवाज़ है, एक सफ़र है
जो बेहद खुशनुमा है, सुकूँतारी है
और है रोशन भी...
बेशक,
इसे बाँधा नहीं जा सकता शब्दों में...
ना महसूस कर सकते हैं इसे दुनिया वाले...
और ना ही देख सकते हैं इसे अक्ल वाले...
एक आँख चाहिए...
और वो भी शायद किसी काम ना आए
गर पड़ा हो उस पर दो-जहाँ का पर्दा...
देना चाहे भी अगर कोई ज़रा सबूत
तो नाकाफ़ी होगा समझ वालों को
और नाकाम होगा देने वाला भी...
बेशक,
गफलत में है ये दुनिया
की क्या नाम दे इस
हर लम्हा रूप बदलते रिश्ते को...
हम खुद हैरत में हैं
की क्या नाम दें इस दीवानगी को...
दीवानगी कहें तो बदनाम होता है इश्क
परवानगी कहें तो बदगुमान कहलाती है शमा
और
आवारगी कहें तो बेवफा समझा जाता है भँवरे को...
बड़ी मुसीबत है...
मियाँ ग़ालिब तो एक ही साँस में इसे
वहशत, शोहरत, मुसीबत सब कह छुटकारा पा गए
और हम इसे आतिश भी कहें तो नक़ल चोर कहलाएँगे...
बस...
बदनाम कर सकते हैं वो हमें
सो कर रहें हैं...
मशकूर रह सकते हैं हम हर हाल में
सो रह रहें हैं...
क्यों मगर फिर भी उलझे रहते हैं हम
कुछ भी समझने और समझाने में...?
क्यों मगर बिखर जाते हैं हम
यूँ बेहवासों को सुलझाने में...?
के जबके हमको भी खबर है
की तेरा-मेरा जो ये रिश्ता है
ये समझ के पार है...
क्यूँ ना..
रख छोड़े हम उसे वैसा ही जैसा वो है...?
क्यूँ ना..
रहने दें हम उसे अनाम ही...?
क्या जरुरी..
उसे कोई नाम देना
क्या मकसद..
जब हमें दो नहीं रहना...
सच कहें तो
ये तेरा-मेरा जो रिश्ता है
क्या इसे रिश्ता कहना भी मुनासिब है...?
रिश्ता होने का भी इलज़ाम
कैसे दे सकते हैं हम इस... इस... इस... इश्क को
इस रहस्य को, इस मोहब्बत को, इस इसरार को...
के जबके तुम ही हम हैं और हम ही तुम हो
फिर कहने को भले ही दो हम ज़माने को...
हैरान हैं हम
के हमारा एक होते ही
क्या खूब ये करिश्मा हुआ है
सिफ़र था जो वो सब कुछ हुआ है...
सिफ़र था जो वो सब कुछ हुआ है...
सिफ़र था जो वो सब कुछ हुआ है...

The dance and the dancer are not two...
परमात्मा नर्तन करता हुआ नर्तक है...
सृष्टि ही सृष्टा है...





Tuesday, January 25, 2011

गणतंत्र दिवस की परेड




सुबह जल्दी उठ जाएँगे

शरीर को नहलाएँगे
सफ़ेद कपडे पहन कर
बगुला भगत बन जायेंगे...


तिरंगा खरीद कर लाएँगे
गाड़ी पर सजाएँगे
बैठा बच्चों को फिर ट्रिपल सीट
बच्चे हम हो जाएँगे...


स्कूल-दफ्तर बन-ठन के जाएँगे
विजयी पताका लहराएँगे
लाइन तोड़ आगे निकल
होशियार हम कहलाएँगे...


वापसी में पोहा-जलेबी हम खाएँगे
खाकर पोहे, कागज़ इधर-उधर फेंक जाएँगे
चाय की चुस्कियों के बीच
देश के हाल पर चिंता हम जताएँगे...


घर आकर टीवी लाउड लगाएँगे
पड़ोसियों पर कुछ रौब जमाएँगे
गणतंत्र दिवस की परेड देख
पीक थूक खीसे निपोरते जाएँगे...


दाल-बाफले हम बनवाएँगे
डकार कर उन्हें थोड़ी देर सुस्ताएँगे
पिक्चर-पिकनिक ना जा सके तो क्या
पुरे परिवार को नकली ही सही
पर ३० रूपये में पांच फिल्म दिखलाएँगे...


शाम को महफ़िल सजाएँगे
दोस्त-यारों की सांगत हम चाहेंगे
ड्राय डे पर सरे आम पीकर
गणतंत्रता का जशन हम मनाएँगे...


देर रात घर लौट बीवी को सताएँगे
दरवाजे पर गुर्रायेंगे
थोड़ी उछल-कूद मचा कर
चादर ओढ़ सो जाएँगे...


गणतंत्र दिवस...गणतंत्र दिवस...गणतंत्र दिवस
लो जी मन गया गणतंत्र दिवस...!!!


अगली सुबह फिर काम पर जाएँगे
ऊपर-नीचे से नोट-पानी कमाएँगे
साल में दो बार बस
वन्दे मातरम् हम गाएँगे...


बाकी साल तंत्र से हम हो जाएँगे
जीवन यंत्रवत हम बिताएँगे
आईना 'मनीष' दिखलाए तो
मार दूर उसे भगाएँगे...


मिट्टी के गुण हम गाएँगे
दोहन फिर उसका करते जाएँगे
फागन को आता देख कर
रंग में भंग मिलाएँगे...


त्यौहार हर हम मनाएँगे
शान-ओ-शौकत दिखलाएँगे
असल को हम ठेंगा दिखा
नक़ल की फसलें बोते जाएँगे...


हम ऐसे ही जीते जाएँगे..........
हम ऐसे ही जीते जाएँगे..........



(गणतंत्र दिवस पर गणों के अहित में सखेद अप्रकाशित)










Monday, January 24, 2011

Ups n Downs...

To hear you talk
is to hear birds chattering in the morn...

To hear you giggle
is to hear water flowing in the river...

Your heartfelt laughter
Oh! it's  big sigh of relief
after years n years of torcher...

To hear your cries of pain
was to hear rains falling incessantly on a tin roof...

To control your sobbing
was to pacify the pangs of a hungry child...

Your condition brought tears
even to the most stone hearted
after years n years of slumber...

To wipe off your memories
was to wash off the past...

To provide you with some hope
was to promise future to the dead...

Now..,
as i see you smile without a reason,
i see love as one great wonder...

Today..,
To see you walk in confidence
is to see the Sun rise in the morning...

To see you spread your cheer
is to see a rose flowering...

The conditions haven't changed much
but you have grown over them...
Yes indeed you have grown...

but..

wait...wait...stop...

What happened..??

Why are you in pain..??

Why there is so much of anguish..??

Why...Why...Why...
The bird has stopped chattering..

Why the rose has wilted..?

Why the Sun is setting in the evening..?

Has a demon with his words of fire destroyed everything..?

Has he brought the despair n gloom with him..?

Who nourished him..?

Who cherished him..?

Oh!

Who set him free..?
Who set him free..?

Was it the bird..
Was it her chatter..
Was it the rose or was it the fragrance..
Was it the thorn or was it the choice..
Was it the Sun or our sight..

Or...

Is it that the demon, as always, was already free?
Waiting for the opportunity to strike..
when the I in me becomes as big as Thee...!!

Oh! you god of gods!
Tell us..
when will I be free...???
Speak..
when will You be free...???
Narrate..
when will We be free...???

Or...

Is it that big fellow called ' I ' who should tell us that............!!


Monday, January 17, 2011

भेड़-चाल


सच मिमियाते हुए बच्चा लगता है
झूठ दबंगता में सच्चा लगता है...

कैसे हो सच और झूठ का फैसला
सच हो लंगड़ा तो झूठ तगड़ा लगता है...

दो कदम भी तो चलना नहीं है सच पाने को
खुद में झाँक लेना मगर कसेला लगता है...

सच के मुखोटे लगाये रखना बहुत जरुरी है दोस्त
झूठ वर्ना बहुत विषेला लगता है...

खोया रहना चाहता है 'मनीष' भी इस भेड़-चाल में
ज़िन्दगी जीने को मगर जिगर एक अकेला लगता है...