Wednesday, June 1, 2011

मिज़ाज

ये वफ़ा-ओ-जफा के किस्से कब तलक
कब तलक ये इश्क-ओ-मुश्क की बातें
कब तलक जी सकता है कोई यूँ बँट-बँटकर
ये फरेब-ओ-हकीकत के फ़साने कब तलक
कभी तो उठा ये तेरे-मेरे के परदे
ये इसका और वो उसका के दुखड़े कब तलक
कब तलक रखोगे दूरियाँ ज़मीन-ओ-आसमान के बीच
ये मिलने-बिछड़ने के सिलसिले कब तलक
कब तलक यूँ 'कब तलक - कब तलक' करते रहोगे तुम "मनीष"
ये शोर-ओ-गुल, ये चीख-ओ-पुकार, ये सन्नाटे कब तलक

मान क्यूँ नहीं लेते तुम
की
ऐसा है तो ऐसा ही सही है
क्यूँ जिद पर अड़े हो
की
ये सही है और वो गलत
शायद...,
आँखों पर मन का कोहरा अभी घना है
इसलिए तवज्जो है उसपर जो हासिल-ए-फ़ना है

वाह जनाब वाह !!
बस अब इतना और बताने की मेहरबानी कीजिये जनाब
की ;

सुख-दुःख क्या वो भेजता है....??
क्या हम ही उन्हें नहीं बुला लेते अपने कृत्यों से....??

अगर ऐसा है तो फिर आदर कैसा और किसको मिलना चाहिए....??
और गरचे ऐसा नहीं है तो स्वीकार किसका होना चाहिए....??

क्या उसका जो है ही नहीं....??
या उसका
जिसे जीतें हैं हम हर पल
जो महसूस होता है हर लम्हा....??

जो है कोई जवाब
तो
जवाबदारी भी लीजिये जनाब
सुनी-सुनाई धारणाओं से बहल जाएँ
ऐसे बचकाने नहीं हमारे मिज़ाज

जानता हूँ मगर
की..

हाक़िम मेरा खुद ही मरीज-ए-इश्क है
वो इस मर्ज को क्या दुरुस्त करेगा
उल्टा मुझे भी इश्क में खुद सा बर्बाद करेगा
और जो हुआ वो हस्ती का शौक़ीन
तो मस्ती को मेरी बर्बादी कहेगा
मुझे तलाश है अपने तई किसी सूरज की
जो
रोज़ उठाया करे मुझे मेरे ख़्वाबों-ख्यालों से
की
आँख खोले से भी जब नज़र आए वो ही सामने
तो
ख़्वाबों और ख्यालों में कोई गफलत न बचे
हर ख्व़ाब ख़याल और हर ख़याल हकीकत लगने लगे
हाँ...
इतना उठाये वो मुझे
की
झमाझम बरस पडूँ में
प्यासी धरती पर
काले-काले बादलों की तरह
हाँ...
इतना बरसे अब्र-ए-इश्क
की
एक हो जाएँ
ये ज़मीन-ओ-आसमान...


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