Monday, August 13, 2012

The burden of being meditative

आदरणीय साधना जी,




प्रणाम..

आज 12/08/2012 के दैनिक भास्कर समाचार पत्र में आपकी सीख का लेख "गंभीरता का बोझ" पढने के बाद आपके शब्दों और आपकी सीख को गंभीरता से ना लेते हुए आत्मा ने आपके साथ ये तथ्य बांटने का आग्रह किया की :

ये माना की विनोद या हास्य गंभीरता से अधीक सुलभ हैं पर फिर ये भी जानें की दोनों गुणों में से सिर्फ एक गुण को चुन लेना वैसा ही है जैसे;

फूलों के ही दीवाने हैं सब
हम काँटों से दिल कौन लगाये
कांटें ही लिए बैठे हैं अब
फुल तो कब के मुरझाये
चुनने की भूल की थी तब
अब तो ये रहस्य साफ़ नज़र आए
की
खुशबु बन के महके है रब्ब
रब्ब ही तो हैं काँटों में समाये
अधिकतर आदम-हव्वा अब तक मगर
सिर्फ इल्म के सेब को ही चुनते आए...

ये भी जानना चाहूँगा की क्या ओशो महाराज की भी सारी बातों को, सीखों को, ध्यानो को सिर्फ विनोद में ही लेकर हँसी-मजाक उड़ाई जाए..??

या

गंभीरता से उन्हें जहन में उतार हँसते-हँसते आनंद आमार गोत्र - उत्सव आमार जात का भावपूर्ण गीत गाया जाए..??

To read "between the lines" is an art too...isn't it?

I hope that this this book titled "between the lines", the pdf file of which i am lovingly attaching here with in this e-mail, might be able enough to provide you some help to let your conscience feel the concept of non-duality.
"अद्वैत या तौहीद का सिर्फ ज्ञान या इल्म नहीं
बल्कि अनुभूति या तस्दीक भी वाजिब या जरुरी है
इश्क का अमृत चखने या सद चित्त आनंद जीवन जीने के लिए...."

With regards,

Yours truly,
manish badkas

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