Saturday, September 7, 2013

MY CANDID FRUSTRATIONS ;-)


सिंहो के नहीं लह्ड़े (झूंड)
हंसो की नहीं पांत (कतार)
हीरों की नहीं बोरियाँ 
साधू ना चले जमात 

साधू कहावत कठीन है 
लम्बा पेड़ खजूर
चढ़े तो चाखे प्रेम-रस 
गिरे तो चकनाचूर 

ऐसी दुनिया भाई दीवानी 
भक्ति भाव नहीं बूझे जी
कोई आये तो बेटा माँगे 
यही गुंसाई दीजे जी 

कोई आवे दुःख का मारा 
हम पर कृपा कीजे जी 
सांचे का कोई ग्राहक नाही 
झूठे जगत पतिते जी 

कहता कबीर सुनो भाई साधो 
अन्धो का क्या कीजे जी

साधू भया तो क्या भया  
माला पहनी चार
बाहर भेष बनाईया
भीतर भरा अहंकार 

फूटी आँख विवेक की 
लखे ना संत-असंत 
जाके संग दस-बीस हैं 
वाको नाम महंत 

THANKS TO OUR BASIC HYPOCRITE NATURE...KABEER'S INNER VOICE OF MORALITY DIDN'T REACH MAJORITY OF WILLFULLY DEAF EARS THEN AND IS DYING EVEN TODAY...
   

दोस्त बन बन के मिले हमें मिटाने वाले  
हमने देखे है कई रंग ज़माने वाले 

साधो ये मुर्दों का गाँव 
और मरघट पे सन्नाटे को ही शान्ति कहा जाता है 

रूहानी सफ़र तुम क्या जानो 
तुम तो बस जिस्म की यात्रा ही जानो 
पूछो अफ़साने हकीकत के दिलवालों से 
जो रहते सदियों से ही अकेले हैं 
बस.… 
दिल की ही गलियों में खेले हैं 

एक सच्चा वारिस/वारसी/विद्यार्थी ज्ञान अर्जन के लिए पहले-पहल तो महज कौतुकता से, फिर जिज्ञासा से और अंततः मुमुक्षा से अपने सवालों के जवाब ढूँढता है…चाहे फिर वो सवाल ज़िन्दगी से, जिंदगानी से या सदगुरु से किये गए हों पर हमने तो अबतक यही महसूस किया है की सवालों के जवाब भी zen  ही देता है प्रश्न-उत्तरहीन भी जेन ही कर पाता है।
हैप्पी गुरु पर्व/गुरुवार 
When Guru wars with my head it turns out to be a heartfelt zen day ;-)  

वफ़ा (loyalty) और इश्क के माईने हैं अलग 
वफ़ा हमारी इश्क से है पर वफ़ा से इश्क के हम तलबगार नहीं 

 झूठी चंचला सकारात्मक Jane से मिल ना पायी
सच्चा रूप्किशोरे निन्दात्मक मिशेल से मिल ना पाया 
बहकते रहे हम, भटकते रहे हम यूँ ही सुबह-ओ-शाम 
तुम हमसे, हम तुमसे और आईना खुद से कभी मिल ना पाया

तू अगर बर्बाद है वहाँ 
तो मैं भी कहाँ आबाद हूँ यहाँ 
धज्जियां उड़ाई गयी जब तेरी इज्ज़त की 
तो मैं भी दिल-ओ-जान से जल रहा था यहाँ 
सबकुछ ख़त्म करने की कोशिश तो बहुत की दुनियावालों ने
तेरे-मेरे इश्क का मगर मिटा न सके वो नामो-निशाँ
सुलग रहा हूँ मैं भी और तड़प रही है तू भी 
अब भी मगर छू नहीं पाती हमें रंज-ओ-ग़म की दुनिया-जहाँ
चल एक बार फिर से एक हो जाए हम वहाँ  
 

आईना देख के बोले वो सजने-सँवरने वाले
देखना है किस-किस की आज है आई हुई
आईना देखते हैं वो नाज़-ओ-अदा से 
और फिर ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो 
ये मगर वो कभी नहीं देखते की आईना उन्हें किस नीयत से देखता है  

सुबह-सुबह तेरा नाम लेते हैं हम,
दोपहर हो जाती है तेरे ही सदके में सनम,
शाम छा जाती है मदहोशी तेरे तसव्वुर की,
रात को सजदे में सरेआम होते हैं करम


ना जीते हैं और ना ही मरते हैं हम 
जाने क्यूँ फिर भी मगर 
तेरे ज़िक्र पे ये क़त्ल-ए-आम होते हैं हर जनम 



आठ पहर चौसठ घड़ी 
बजती रहती है दिल में शहनाई 
तेरे सिमरण की 
जाने क्यूँ फिर भी मगर 
ये घंटे घड़ियाल से लगते हैं सनम 



तुम ही सीखा दो अब हमें 
ये साँसें लेने-छोड़ने के सितम 
ओ मेरे यारा !!
ओ मेरे दिलबर !!
ओ मेरे सितमगर !!
वर्ना तो ज़िन्दगी में किस्से तमाम होते हैं हर दम 



बोलिये… सीखाएँगे आप मुझे 
यूँ पल-पल जीना 
और 
यूँ ही पल-पल मरना ??
या 
फिर से एक बार छोड़ देंगे आप मुझे 
सुबह-ओ-शाम तरसने और तड़पने के लिए सनम ??

बोलिए ना…  

Man is bad case....isnt it?

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