Wednesday, April 21, 2010

चुप्पी या मौन







तेरी ये चुप्पी
गर तेरी मौज है मेरी जान
तो मेरे शब्दों में भी
छुपी एक खोज है मेरी जान




माना के तेरे मौन के आगे
मेरा ज्ञान है बिलकुल फीका
उठाता हूँ फिर भी जोखम
के ज़िस्त बस चंद रोज है मेरी जान




बात अच्छे - बुरे या
अधूरे - पुरे से परे है मेरी जान
बात ये है की...
बात कुछ भी नहीं है मेरी जान




कुछ भी तो नहीं है कहने को
और फिर भी कितना कुछ है बाकी
बातों में बस इशारे हैं
इश्क तो नहीं है ना मेरी जान




भीड़ में रह सको गर तनहा
तो लुत्फ़-ए-तनहाई है मेरी जान
लोग कर दें अगर तुम्हें बेकल
तो भी तो गम-ए-रुसवाई है मेरी जान




ख्यालों से ही गर तुम
 हो जाते हो बेचैन
ज़रा मेरे बारे में भी तो
 सोचो मेरी जान




ना भी कह पाया वो
जो कहना चाहता हूँ तो क्या
कमज़र्फ  या हरजाई तो
नहीं  ना कहलाऊंगा मेरी जान...



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