Wednesday, November 10, 2010

सिलसिले समय के..

गरीब वो नहीं                                        
जिसके पास कुछ नहीं..
गरीब वो..,
जिसके पास ज़िंदगी है 
पर होश नहीं..

होश वो नहीं
जिसमे पता चले की मैं हूँ..
होश वो..,
जो पता लगा ले के ख़त्म मेरे बाद भी होती 
ये ज़िन्दगी नहीं..


ज़िन्दगी वो नहीं
जिसमे आलिशान हो सबकुछ..
ज़िन्दगी वो..,
जिसमे परेशानी तो हो पर कर सके वो हमें 
पर-ए-शान नहीं..


पर-ए-शान वो नहीं
जिसका लुट गया हो सबकुछ..
पर-ए-शान वो..,
जिसकी निगाह में होती खुद की 
कोई शान नहीं..


शानदार वो नहीं
जिसका हो मुल्क में कुछ नाम..
शानदार वो..,
जिसको होता नाम से 
कुछ काम नहीं..


काम वो नहीं
जो किया जाता है हाथों से..
काम वो..,
जो हुआ जाता है नेकी से
 बद नीयतों से नहीं..


नियत वो नहीं
जो रखी जाती है कुछ पाने के लिए..
नियत वो..,
जो होती है हर वक़्त फिर चाहे कुछ और हो 
या हो नहीं..


होना वो नहीं
जो बन जाते है हम बुढ़ापे में..
होना वो..,
जो हो मासूम बुढ़ापे में 
पर  हो बचकाना नहीं..


बचकाना वो नहीं
जो रहता है मस्त अपनी मस्ती में..
बचकाना वो..,
जो ऊपर तो उठ गया बचपने से पर उठ सका ऊपर
तुलना से नहीं..


तुलना वो नहीं
जो सिखाती है फर्क अच्छे-बुरे में..
तुलना वो..,
जो फर्क तो करे पर जाने की कोएलों और हीरों में होता 
बुनियादी कोई फर्क नहीं..


फर्क वो नहीं
जो देख सके खुद को खुदाई से अलग..
फर्क वो..,
जो देख ले की हुआ कभी खुदा
खुदाई से जुदा नहीं..


जुदा वो नहीं
जो हो मुकम्मल अपनी तनहाइयों में..
जुदा वो..,
जो करे खुद को तनहा महसूस पर है ऐसा 
असल में नहीं..


असल वो नहीं
जो दिखाई दे साफ़-साफ़ इन नज़रों से..
असल वो..,
जिसकी तबियत छीन पाई ज़माने वालों की 
काहिली भी नहीं..


काहिली वो नहीं
जो फैली हुई है चार-सूं गंदगी की तरह..
काहिली वो..,
जिसका मोमिन को अभी
पता तक नहीं..


पता वो नहीं
जो लिखा हो घर के दर-ओ-दीवार पे..
पता वो..,
जो होता काएनात में
कभी लापता नहीं..


लापता वो नहीं
जिसका होता कोई निश्चित पता..
लापता वो..,
जिसका मकीं होकर भी होता
कोई मकां नहीं..


मकां वो नहीं
जिसकी होती है दर-ओ-दीवारें..
मकां वो..,
जिसमे होती है परवाज़ 
पे मंजिल नहीं..


मंजिल वो नहीं
जहाँ पहुँच के आदमी ठहर जाए..
मंजिल वो..,
जो पैगाम लाये सफ़र का पर साथ लाये
कोई थकान नहीं..


थकान वो नहीं
जो इजाज़त दे कुछ देर सुस्ताने की..
थकान वो..,
जो सराय को बनाती कभी 
अपना घर नहीं..


घर वो नहीं
जिसमे रहते हैं शहर के अमीर..
घर वो..,
जिससे बे-घर हो सकता
गरीब से गरीब भी नहीं..


गरीब वो नहीं..


 

2 comments:

  1. wonderful, unbelievable

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  2. यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
    कविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.

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