Thursday, November 17, 2022

अहम् ब्रह्मास्मि त्वं चा!


मन वो पुजारी है जो शरीर रूपी मंदिर को स्वच्छ, स्वस्थ, सुंदर, निर्मल, कोमल भी रख सकता है और अस्वच्छ, अस्वस्थ, असुंदर, मलिन, कठोर भी। इस पुजारी को मंदिर का समुचित ध्यान रख मंदिर के आत्मा रूपी स्वामी का जप-तप-ध्यान करने को कहिए।
ईश्वर की कृपा से इस मन-मंदिर के ईश-ईशा तत्व हैं आप अतएव इस मनमंदिर के स्वयंभू संचालनकर्ता भी आप ही हैं। ध्यानस्थ हो अपने कर्म का चुनाव कीजिए और अपने कर्मों के फल का अधिकार पूर्ण श्रद्धा-सबूरी, प्रज्ञा-विवेक समेत अपने कूल स्वामी, अपने ईश पर स्वाहा कर दीजिए।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)

अर्थ: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं... इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।

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