Saturday, March 30, 2013

खुदा की लाठी - Wrath of God



"खुदा की लाठी 
या 
कल्पेषित लफ्ज़ों में यूँ कह लीजिये की भारत भाई का जूता
 जब सर पे पढता है तो आवाज़ भी नहीं आती है जनाब..."

"बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,
वर्ना ग़ालिब तेरी औकात क्या है"

ये ताना मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहादुर शाह ज़फर द्वारा पदायुक्त मुसाहिब जनाब जोंक के लिए सरे राह कहा था। बाद में बादशाह के दरबार में मजलिस के दौरान उनकी नेकदिली और रहनुमाई से बाबस्ता हो ग़ालिब ने ये तंज खुद पर ही कस लिया था। ग़ालिब जानते थे की मुर्ख लोग तो उनका तंज कभी ना समझ पाएंगे पर बहादुर शाह ज़फर तो आखिर शाह ठहरे, कोई आजकल के दैनिक भास्करी या अग्रवाल नहीं जो इतना वक़्त लगाएं बुनियाद समझने में। सो वे तो तुरंत समझ गए की असल में ताने के पिछे का उद्देश्य या मर्म क्या है और मंद-मंद मुस्कुरा कर इज़हार भी कर दिया अपनी सोच-समझ का।

यहाँ भी शाह कौन, मुसाहिब कौन, ग़ालिब कौन है ये आप जैसे महानुभावों से भला कैसे छिप सकता है? और गर छिप ही जाए तो लानत आपकी बादशाही पर नहीं वरन दोष हमारे अंदाज़-ए-बयान का ही समझिएगा जनाब !! 

अब वैदिक प्रताप जी को ही देखिये। बहुत व्यस्त हैं वे पाकिस्तान में होने वाले चुनावों की स्वच्छता को लेकर सतही तौर पर। मुखोटा लगा रखा है उन्होंने पाकिस्तानी चिंतनशील होने का पर उनकी असल नीयत, मनसूबे और मंशा भला बादशाह सरकार से छिप सकती है कभी? वे खुद ही वक़्त-बेवक्त ज़ाहिर करते रहते है अपने नापाक मन की दिमागी हालत अपनी ही कलम से  !!

फिर कल्पेश याग्निक जी का शोशानुमा शु-स्वागतम देखिये। खुद-ब-खुद जान जायेंगे आप की की ये व्यक्तित्व खुद कितनी दोहरे मापदंडों का और मानसिकता का शिकार है। हर एक जूता फेंक घटना पर उस वक़्त तो खूब दैनिक भास्करी रोटियां सेंक ली और अब जब हालात ये हो गए हैं की एक नहीं अनेक जूते उनके सर पर सुबह-शाम पड़ रहे हैं तो सही-गलत, चरित्र, मानवीय अधिकारों का पवित्र-पावन उपयोग वगिरह वगैरह जैसी साड़ी दकियानूसी, थोथरी और ढकोसलेबाज परम्पराओं का ज़िक्र छेड़ बैठे हैं पर बच न सकेंगे अल्लाहताला की लाठी से, मार से। अभी तो सिर्फ लिखकर, बोलकर, गाकर, कलाकृतियों के माध्यम से 'विरोध' व्यक्त किया जा रहा है उनकी असंभव के विरुद्ध संभावित जालसाजी से परिपूर्ण व्यक्तित्व का। उन्हें जो करना है वे करें ...बेख़ौफ़ होकर एकमत होकर हर घटना का एक जैसा विरोध करने की परम्परा का निर्वाह करें, जिद करें, ना ना कहें ...वे आज़ाद हैं उनके कर्मो का चुनाव करने के लिए और हम भी। बस ... हमपर ना थोपें अपनी याग्निकता  !!


पर फिर और करें भी क्या ये तथाकथित दैनिक भास्करी गुणिजन जब असल सदगुरू तो नहीं अपितु सदगुरुत्व के नाम पर एक चालबाज़ जीवन प्रबंधन की दूषित 'जीने की राह' दिखाने वाले चालबाज़ पंडित का दोमुँहा साथ मिला है इन्हें। 
मिला है या इन्होने ही अपना लिए है? 
महात्मा गाँधी और उन जैसे राष्ट्रसेवकों के खेती करके, सूत कातकर, आसपास की गंदगी साफ़ करते हुए, इश्वर का सिमरन करते हुए वातावरण को पवित्र बनाने का सहज प्रयास कर स्वयं कष्ट भोगकर जेल को महल समझने के 'जीवन दर्शन' को छोड़ जानबूझकर अपना लिया है इन दुष्ट आत्माओं ने 
विजयी होने की महत्वाकांक्षाओं को, 
पराजित होने के भय से बस कभी-कभी स्वयं को समर्पित दिखाने वाले मन को, 
स्वार्थ सिद्धि हेतु अपनाए गए कल्पीत अध्यात्म को, 
ताक़त के मोह-मायावी जाल में परमशक्ति की शक्ति पाने हेतु स्वयं को उलझा लिया है इन्होने, 
उपयोग करना जानते हैं ये बस इश्वरत्व का 
और वो भी व्यावहारिकता में नहीं अपितु प्रतिस्पर्धा के दौर में खुद को स्थापित करने के लिए।
 नज़रों से बचना का बस दिखावे भरी बातें करवा लीजिये इनसे। 
असल में तो ये लोग हमारी-आपकी नज़रों में  पंडित बने रहना चाहते हैं 
और वो भी सिर्फ इनकी प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं अपनी झोली में इनके लिए साधुवाद लिए हुए, 
इनके अहंकारी व्यक्तित्व के सामने अपनेआप को पूर्णतः समर्पित किये हुए। 
इनका निंदा करना तो घोर अपराध है इनकी नज़र में...ठीक उतना ही बड़ा अपराध जितना की परमात्मा की निंदा करना है।
 दैनिक भास्कर समूह की निंदा करना तो ऐसा है जैसे सूर्यदेव की निंदा कर दी हो। बस यही इनकी असल 'जीने की राह' है  !!

    

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