Saturday, May 14, 2011



ये..
प्यार को दोस्ती से
अलहदा कर देखने वाले...
ये..
साँसों को धडकनों से
जुदा समझने वाले...
कहना असल में
ये
चाहते हैं शायद...
की
वो हैं बस..
खुद को जिस्म ही जिस्म जानने वाले...

मान लेते हैं जब ये
खुद को
फ़क़त एक मिटटी का पुतला...
मांगने लगते हैं
दौलत
हुस्न-ओ-शबाब की
खुद से किस कदर बेगाने हो जाते हैं
ये..
नाज़-ओ-अदा पे इतराने वाले...

दीवाना हो जाए
जब कोई
इनके हसीन रुखसार का...
तो
बेशर्म और काहिल कह
दिल ही दिल में
मुस्कुराते हैं
ये..
पर्दों से बेपनाह मोहब्बत करने वाले...

रक्खूं जो नियत पाक-साफ़
और
नज़रें केवल इश्क पर...
तो
नादाँ मुझे समझ
तमीज थोड़ी मुझे बक्षने
की
दुआ करते हैं
ये..
नसीब को बेनसीब समझने वाले...

अपने लिए मांगो
चाहे दूसरों के लिए
भिकारी तुम्हे बना ही देते हैं
ये..
दिन-ओ-मजहब के जानने वाले...

बेसब्री पर तुम्हारी
रोटियां लेते हैं अपनी ये सेंक...
शिकायत करो जो तुम
अपने खालीपन की
तो
भूखे का तमगा तुमपर
लगा देते हैं
ये..
मुल्ला-ओ-पंडित-ओ-सियासत वाले...

सब्र हो जो तुम में
अब और यहाँ
जो है जैसा है
के
दिली क़ुबूल का..
देखें फिर किस तरह
चलते है धंधे
ये..
मंदिरों, मस्जिदों और नेताओं वाले...

ये..
नहीं कहता 'मनीष'
की
बैठ जाओ तुम
हाथ पर हाथ धर
भगवान् भरोसे...
कर्म करो ख़ुशी-ख़ुशी
पर
बनो न तुम हैवान हवस वाले...

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