Thursday, May 19, 2011

शायद...



ये..
जो अधुरापन सा
मालुम पड़ता है
दो प्रेमियों को अपने बीच...
ये वो आधा आखर है प्रेम का
जिसकी बात कबीर करते हैं.....शायद

ये..
'शायद' इसलिए लगाया की
हमारे देखे से तो
कोई अधूरापन दीखता नहीं...
इस प्रेम के आधे आखर ने
खुद अधुरा रहकर
हमें पूरा कर दिया है......शायद

ये..
'शायद' इसलिए जोड़ा है शायद
की प्रेम अपने-आप में तो पूर्ण है
पर दो प्रेमियों को पूर्ण करने हेतु...
उसे खुद दो दिलों में
बँट जाना पड़ता है.....

नहीं..
इस बार कोई शायदगी
का दोयम एहसास नहीं रेख छोड़ा है प्रेम ने...
पूर्ण में से पूर्ण निकलकर
पूर्णता से
पूर्णता में
पूर्ण ही शेष रह जाता है.....
ये ही पूर्ण की शास्वतता है......शायद

अब..
ये वाला 'शायद'
फिर से इस करके रक्खा है मेरे आत्मन...
की ये सत्य
तब तक महज एक तथ्य रहेगा
जब तक स्वयंभू अनुभूत न हो जाए..................................!! 


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